आज कल शिक्षा का क्षेत्र काफी विकसित हो गया है । जो समय की मांग है । वही इस शैक्षणिक संस्थानों से निकलने वाले भरपूर सेवा का योगदान नहीं देते है । सभी को सरकारी नौकरी ही चाहिए , वह भी आराम की तथा ज्यादा सैलरी होनी चाहिए किन्तु अपने फर्ज निभाते वक्त आना कानी करते है । कई तो कोई जिम्मेदारी निभाना ही नहीं चाहते । किस किस विभाग को दोष दूँ समझ में नहीं आता । ऐसा हो गया है की सरकारी बाबुओ और अफसरों के ऊपर से विश्वास ही उठता जा रहा है । आज हर कोई किसी भी विभाग में किसी कार्य के लिए जाने के पहले ही यह तय करता है कि उसका कार्य कितने दिनो में संपन्न होगा और उसे कौन कौन सी बाधाओं का सामना करना पड़ेगा । वह दोस्तों से अधिक जानकारी की भी आस लगाये रखता है ।
क्या यह सब सरकारी विफलताओं को दोष देने से दूर हो जायेगा ? कतई नहीं । हम सभी का सहयोग बहुत जरुरी है । बच्चे का जन्म होते ही उसकी जिम्मेदारिया बढ़नी शुरू हो जाती है । वह किसी की अंगुली पकड़ कर चलने का प्रयास करता है । उसे अपने माता -पिता के प्यार से आगे की कर्मभूमि का ज्ञान शिक्षण संस्थाओ से मिलता है । उस ज्ञान का दुरूपयोग या उपयोग उसके शैक्षणिक शक्ति पर निर्भर करता है । पुराने ज़माने में गुरुकुल या छोटे छोटे स्कुल हुआ करते थे । हमने देखा है उस समय शिक्षक और शिष्य में एक अगाध प्रेम हुआ करता था । दोनों एक दूसरे की इज्जत करते थे । मजाल है की शिष्य गुरु के ऊपर कोई आक्षेप गढ़ दे या गुरु शिष्य पर क्यों की आपसी मेल जोल काफी सुदृढ़ होते थे । उस समय नैतिक विचार नैतिक आचरण सर्वोपरि थे । छोटे बड़ो की इज्जत और बड़े छोटे को भी सम्मान देते थे । कटुता और द्वेष का अभाव था । ऐसे गुरुकुल या शिक्षण स्कुल से निकलकर आगे बढ़ने वालो के अंदर एक उच्च कार्य करने की क्षमता थी । शायद ही कभी कोई किसी को शिकायत का अवसर देता था । इस तरह एक स्वच्छ समाज और देश का निर्माण होता था ।
आज कल की दुर्दसा देख रोने का दिल करता है । शैक्षणिक संस्थान व्यवसाय के अड्डे बनते जा रहे है । शिक्षा के नाम पर कोई सम्मान जनक सिख तो दूर समाज को बर्बादी के रास्ते पर चलने को उकसाए जा रहे है । शैक्षणिक संस्थान रास लीला , नाच और गान के केंद्र बनते जा रहे है । नयी सोंच और नयापन इतना छा गया है कि कभी कभी बेटे बाप को यह कहते हुए शर्म नहीं करते कि चुप रहिये आप को कुछ नहीं पता । अब आप का जमाना नहीं है । पिता के प्रति पुत्र का आचरण आखिर समाज को किधर मोड़ रहा है । बलात्कार , देश के प्रति अनादर , व्यभिचार समाज में इतना भर गया है और हम नैतिक रूप से इतने गिर गए है कि अगर कोई बहन को भी लेकर बाहर निकले तो देखने वाले तरह तरह के विकार तैयार कर लेते है , फब्तियां कसेंगे देखो किसे लेकर घूम रहा है। ऐसा नहीं है की सभी ऐसे ही है पर अच्छो की संख्या नगण्य है । उनको कोई इज्जत नहीं मिलती ।
हमारे रेलवे में दो रूप है । प्रशासक और कर्मचारी । आज सभी शिक्षित है चाहे जिस किसी भी रूप में कार्यरत हो ।कर्मचारियों को हमेशा उत्पादन देना है जिसे वे हमेशा जी जान से पूरा करते है चाहे दस आदमी का कार्य हो और उस दिन 5 ही क्यों न हो । इस असंतुलन से कर्मचारी सामाजिक , पारिवारिक , धार्मिक और राजनितिक उपेक्षा से प्रभावित हो जाते है । क्या एक कर्मचारी किसी गदहे जैसा है ? जो मालिक को खुश करने के लिए अपना सब कुछ समर्पण कर देता है । क्या कहे हम तो मजदूर है नीव की ईंट से लेकर भवन के कंगूरे को सजाते है । फिर भी हमारी जिंदगी नीव की ईंट के बराबर ही है । सभी कंगूरे की सुंदरता देखते है नीव की ईंट पर किसी का ध्यान नहीं जाता । शायद उन्हें नहीं मालूम की यह भव्य सुंदरता नीव की ईंट पर ही ठहरी है ।प्रशासक उन उच्च श्रेणी में आते है जो हमेशा कर्मचारियों पर बगुले की तरह नजर गड़ाये रहते है । इन्हें विशेषतः उत्पादकता को बढ़ाना तथा कर्मचारियों के कल्याणकारी योजनाओ को सुरक्षित रखना होता है । जो एक क़ानूनी दाव पेंच के अंदर क्रियान्वित होता या करना पड़ता है । यह भी एक जटिल क़ानूनी प्रक्रिया के अनुरूप होता है । लेकिन ज्यादातर देखा गया है की प्रशासक इस क़ानूनी प्रक्रिया का दुरूपयोग करते है जिससे उनकी स्वार्थ सिद्धि हो सके । मेरा अपना अनुभव है की अच्छे प्रशासक बहुत कम हुए है और है । आज कल इन्हें अपने को दायित्वमुक्त व् फ्री रखने की आदत बन गयी है । ये सब उपरोक्त सड़ी हुयी शिक्षा का असर ही तो है । कौन अच्छा अफसर है ? आज कल समझ पाना बड़ा मुश्किल है । आम आदमी यही सोचता है की चलो ये अफसर ख़राब है तो अगला अच्छा है , आगे बढे। काम जरूर हो जायेगा । किन्तु सच्चाई कुछ और ही होती है ।
इसे आप क्या कहेंगे ?
उस दिन जब बंगलुरु स्टेशन पर बॉक्स पोर्टर ने मेरे बॉक्स को पटक कर बुरी तरह से तोड़ दिया था । जुलाई 2015 की घटना है । मैंने इसकी सूचना सभी को दी चाहे मेरे मंडल का अफसर हो या बंगलुरु का । फिर भी कोई कार्यवाही नहीं हुयी । मुझे संतोष नहीं हुआ और मैंने फिर एक लिखित शिकायत मंडल रेल मैनेजर बंगलुरु को भेजा । इसकी कॉपी अपने मंडल रेल मैनेजर को व्हाट्सएप्प से भेजा । फिर भी कोई न कारवाही हुयी और न enquiry । शायद छोटी और अपने स्टाफ की शिकायत समझ इस पर कोई कार्यवाही करना किसी ने उचित नहीं समझा । अगर वही हमसे कोई गलती हो जाय तो हमें नाक पकड़ कर बैठाते है । उस पर धराये लगाकर सजा की व्यवस्था तुरंत करते है क्यों की उनके लिए ये आसान है । ऐसे समाज और कार्यालयों की त्रुटियों को आखिर बढ़ावा कौन दे रहा है । शायद हमारे सड़ी हुयी शिक्षा का प्रभाव है । जिसे इन नपुंशक अफसरों की वजह से औए बढ़ावा मिलता है और एक दिन यह एक नासूर बन जाता है । आज कल ऐसे नासूरों का इलाज करना अति आवश्यक हो गया है । आखिर इसका इलाज कौन करेगा ?
आज हमारे नए प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के कुछ कार्यक्रमो से काफी खुश हूँ क्यों की इन नपुंशको को एक सठीक इलाज मिलने वाली है । रेलवे ने फिल्ट्रेशन शुरू कर दी है इसके अंतर्गत उन अफसरों पर गाज गिरेगी और उन्हें CR के अंतर्गत निकाल दिया जायेगा जिन्होंने 30 वर्ष सर्विस या 55 वर्ष की उम्र को पूरी कर ली है तथा अच्छे रिकार्ड नहीं है । काश ऐसे नपुंशको पर जल्द गाज गिरे । समाज बहुत सुधर जायेगा और कर्मठ कर्मचारियों के जीवन में एक नए सबेरे का उदय होगा ।
क्या यह सब सरकारी विफलताओं को दोष देने से दूर हो जायेगा ? कतई नहीं । हम सभी का सहयोग बहुत जरुरी है । बच्चे का जन्म होते ही उसकी जिम्मेदारिया बढ़नी शुरू हो जाती है । वह किसी की अंगुली पकड़ कर चलने का प्रयास करता है । उसे अपने माता -पिता के प्यार से आगे की कर्मभूमि का ज्ञान शिक्षण संस्थाओ से मिलता है । उस ज्ञान का दुरूपयोग या उपयोग उसके शैक्षणिक शक्ति पर निर्भर करता है । पुराने ज़माने में गुरुकुल या छोटे छोटे स्कुल हुआ करते थे । हमने देखा है उस समय शिक्षक और शिष्य में एक अगाध प्रेम हुआ करता था । दोनों एक दूसरे की इज्जत करते थे । मजाल है की शिष्य गुरु के ऊपर कोई आक्षेप गढ़ दे या गुरु शिष्य पर क्यों की आपसी मेल जोल काफी सुदृढ़ होते थे । उस समय नैतिक विचार नैतिक आचरण सर्वोपरि थे । छोटे बड़ो की इज्जत और बड़े छोटे को भी सम्मान देते थे । कटुता और द्वेष का अभाव था । ऐसे गुरुकुल या शिक्षण स्कुल से निकलकर आगे बढ़ने वालो के अंदर एक उच्च कार्य करने की क्षमता थी । शायद ही कभी कोई किसी को शिकायत का अवसर देता था । इस तरह एक स्वच्छ समाज और देश का निर्माण होता था ।
आज कल की दुर्दसा देख रोने का दिल करता है । शैक्षणिक संस्थान व्यवसाय के अड्डे बनते जा रहे है । शिक्षा के नाम पर कोई सम्मान जनक सिख तो दूर समाज को बर्बादी के रास्ते पर चलने को उकसाए जा रहे है । शैक्षणिक संस्थान रास लीला , नाच और गान के केंद्र बनते जा रहे है । नयी सोंच और नयापन इतना छा गया है कि कभी कभी बेटे बाप को यह कहते हुए शर्म नहीं करते कि चुप रहिये आप को कुछ नहीं पता । अब आप का जमाना नहीं है । पिता के प्रति पुत्र का आचरण आखिर समाज को किधर मोड़ रहा है । बलात्कार , देश के प्रति अनादर , व्यभिचार समाज में इतना भर गया है और हम नैतिक रूप से इतने गिर गए है कि अगर कोई बहन को भी लेकर बाहर निकले तो देखने वाले तरह तरह के विकार तैयार कर लेते है , फब्तियां कसेंगे देखो किसे लेकर घूम रहा है। ऐसा नहीं है की सभी ऐसे ही है पर अच्छो की संख्या नगण्य है । उनको कोई इज्जत नहीं मिलती ।
हमारे रेलवे में दो रूप है । प्रशासक और कर्मचारी । आज सभी शिक्षित है चाहे जिस किसी भी रूप में कार्यरत हो ।कर्मचारियों को हमेशा उत्पादन देना है जिसे वे हमेशा जी जान से पूरा करते है चाहे दस आदमी का कार्य हो और उस दिन 5 ही क्यों न हो । इस असंतुलन से कर्मचारी सामाजिक , पारिवारिक , धार्मिक और राजनितिक उपेक्षा से प्रभावित हो जाते है । क्या एक कर्मचारी किसी गदहे जैसा है ? जो मालिक को खुश करने के लिए अपना सब कुछ समर्पण कर देता है । क्या कहे हम तो मजदूर है नीव की ईंट से लेकर भवन के कंगूरे को सजाते है । फिर भी हमारी जिंदगी नीव की ईंट के बराबर ही है । सभी कंगूरे की सुंदरता देखते है नीव की ईंट पर किसी का ध्यान नहीं जाता । शायद उन्हें नहीं मालूम की यह भव्य सुंदरता नीव की ईंट पर ही ठहरी है ।प्रशासक उन उच्च श्रेणी में आते है जो हमेशा कर्मचारियों पर बगुले की तरह नजर गड़ाये रहते है । इन्हें विशेषतः उत्पादकता को बढ़ाना तथा कर्मचारियों के कल्याणकारी योजनाओ को सुरक्षित रखना होता है । जो एक क़ानूनी दाव पेंच के अंदर क्रियान्वित होता या करना पड़ता है । यह भी एक जटिल क़ानूनी प्रक्रिया के अनुरूप होता है । लेकिन ज्यादातर देखा गया है की प्रशासक इस क़ानूनी प्रक्रिया का दुरूपयोग करते है जिससे उनकी स्वार्थ सिद्धि हो सके । मेरा अपना अनुभव है की अच्छे प्रशासक बहुत कम हुए है और है । आज कल इन्हें अपने को दायित्वमुक्त व् फ्री रखने की आदत बन गयी है । ये सब उपरोक्त सड़ी हुयी शिक्षा का असर ही तो है । कौन अच्छा अफसर है ? आज कल समझ पाना बड़ा मुश्किल है । आम आदमी यही सोचता है की चलो ये अफसर ख़राब है तो अगला अच्छा है , आगे बढे। काम जरूर हो जायेगा । किन्तु सच्चाई कुछ और ही होती है ।
इसे आप क्या कहेंगे ?
उस दिन जब बंगलुरु स्टेशन पर बॉक्स पोर्टर ने मेरे बॉक्स को पटक कर बुरी तरह से तोड़ दिया था । जुलाई 2015 की घटना है । मैंने इसकी सूचना सभी को दी चाहे मेरे मंडल का अफसर हो या बंगलुरु का । फिर भी कोई कार्यवाही नहीं हुयी । मुझे संतोष नहीं हुआ और मैंने फिर एक लिखित शिकायत मंडल रेल मैनेजर बंगलुरु को भेजा । इसकी कॉपी अपने मंडल रेल मैनेजर को व्हाट्सएप्प से भेजा । फिर भी कोई न कारवाही हुयी और न enquiry । शायद छोटी और अपने स्टाफ की शिकायत समझ इस पर कोई कार्यवाही करना किसी ने उचित नहीं समझा । अगर वही हमसे कोई गलती हो जाय तो हमें नाक पकड़ कर बैठाते है । उस पर धराये लगाकर सजा की व्यवस्था तुरंत करते है क्यों की उनके लिए ये आसान है । ऐसे समाज और कार्यालयों की त्रुटियों को आखिर बढ़ावा कौन दे रहा है । शायद हमारे सड़ी हुयी शिक्षा का प्रभाव है । जिसे इन नपुंशक अफसरों की वजह से औए बढ़ावा मिलता है और एक दिन यह एक नासूर बन जाता है । आज कल ऐसे नासूरों का इलाज करना अति आवश्यक हो गया है । आखिर इसका इलाज कौन करेगा ?
आज हमारे नए प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के कुछ कार्यक्रमो से काफी खुश हूँ क्यों की इन नपुंशको को एक सठीक इलाज मिलने वाली है । रेलवे ने फिल्ट्रेशन शुरू कर दी है इसके अंतर्गत उन अफसरों पर गाज गिरेगी और उन्हें CR के अंतर्गत निकाल दिया जायेगा जिन्होंने 30 वर्ष सर्विस या 55 वर्ष की उम्र को पूरी कर ली है तथा अच्छे रिकार्ड नहीं है । काश ऐसे नपुंशको पर जल्द गाज गिरे । समाज बहुत सुधर जायेगा और कर्मठ कर्मचारियों के जीवन में एक नए सबेरे का उदय होगा ।
कर्मठ और मेहनत कश मजदूरो को नमस्कार । यह लेख उन मेहनती कर्मचारी समूह को समर्पित है ।
काश की व्यवस्था में सुधार जड़ से शुरू हो ... माहोल में ही बदलाव आ सके ...
ReplyDeleteनमस्ते नासवा जी । बिलकुल
Deleteनमस्ते नासवा जी । बिलकुल
Deleteधन्यवाद मयंक सर जी । ड्यूटी ऐसी है की ब्लॉग की पढ़ाई कम हो गयी है ।
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