Sunday, January 16, 2011

आप-बीती-०५ .रमता योगी-बहता पानी

                           चौदह तारीख को सुबह-सुबह गाँव से मम्मी का फ़ोन आया था.वह भी मेरे पत्नी के नंबर पर.शायद माँ मेरी पत्नी से ही बात करना चाहती होगी ?पर संयोग वश मैंने ही फ़ोन उठाया,क्यों की उस दिन  घर पर ही था.आचार संहिता का पालन करते हुए मैंने माँ को प्रणाम कही, माँ ने भी बहुत से आशीर्वाद दिए.मैंने पूछ बैठ--खिचड़ी  आज ही है न.?..माँ ने जबाब दिया.--ना हो ..बाबाजी कहत बानी खिचड़ी काल्ह ह..(१५-०१-२०११ ).फिर मैंने आश्चर्य की और पिता जी के स्वस्थ्य का समाचार भी पूछ लिया....फिर क्या था ..खिचड़ी के दिनों में मिलने वाले ताजा-ताजा उख का रस,चुडे,तिलावे ,तिल के लड्डू और दही,गुड,और चुडे के खाने याद आ ही गए,जो मैंने कई बार भोगा था.जब मै कोलकाता में था तो तीज-त्यौहार पर गाँव जाना हो ही जाता था.और मौसमी जाड़े में इन खानों के टेस्ट का क्या कहना ?अब ओ दिन शायद कब आने वाले ,सोंच भी नहीं सकता..जो मैंने अपने वक्त में खाए,वह मेरे बच्चो को भी उतना नहीं मिल प़ा रहा है.अतःहमने भी संक्रांति १५-०१-२०११ को ही मनाने की ठान ली.बाद में मैंने फ़ोन पत्नी को दे दिया.

                  पंद्रह तारीख को जब मै सो कर उठा तो,उस दिन भी मुझे एक स्वप्न आया था.वह यह की एक किसान अपने खेत में हल  चला रहा है.बैलो का रंग  बिलकुल सफ़ेद था.मैंने काफी चेष्टा की -की उस ब्यक्ति को पहचानू ,जो हल चला रहा था? पर ब्यर्थ रहा.बात आई गयी सी हो गयी.दिन भर मोबाइल पर एस.यम.एस.की कड़ी लगी रही और मै भी जबाब देता रहा. दोपहर को १२१६४ सुपर फास्ट को लेकर वाड़ी चला गया.रात-भर वाडी में  आराम करने के बाद ,फिर सुबह १२१६३ सुपर फास्ट को लेकर रवाना हुआ.(१६-०१-२०११).आचानक मस्तिक में एक बिचार घुमड़ गया.लगता है स्वप्न में ही उस भगवान ने मुझे संक्रांति की  बधाई दी थी.दो बैल-यानि श्रधा  और सब्र तथा हल चलाने वाला कर्म.......मतलब श्रधा और सब्र से कर्म करो . जैसे मेरे दिमाग में ये बिचार उठे ...मेरी  आँख भर  आयी  और  मै सोंचने लगा की लगता है --मेरी मृत्यु  भी मुझे बता कर ही आएगी. वाकई ऐसा  रहा तो मै मृत्यु के पहले आखरी पोस्ट जरुर लिखूंगा. यह मेरी  अभिलाषा है.वैसे मैंने अपनी पत्नी को वह बर्स जरुर बताई थी  किन्तु तारीख नहीं बताया क्यों की  सभी घबडा जायेंगे. ईतिहास गवाह है -अच्छे लोग ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं  रहे है.उन्हें इस सृस्ती को जल्द छोड़ कर जाना पड़ा  है. 

                        हमें सदैव श्रधा और सब्र से ,अपने कर्म करने चाहिए ,फल किसने देखा है ,फल तो दूसरो के लिए होते है.ईसीलिये हमें फल की अपेक्षा  नहीं करनी चाहिए.सरोवर अपने नीर को नहीं पिता.ब्रिक्ष अपने फल को नहीं खाते है ,फिर हम क्यों अपने फल को खाए.पर अपने कर्म के फल के भार से जरुर दबना पड़ेगा.

                    बरसात के दिन थे.छीट-पुट बारिस पड़ रही थी .काम में जाने वाले काम में ब्यस्त थे .उन्हें बारिस से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.मै भी किसी काम वस ब्याराकपुर गया था.(पश्चिम-बंगाल के उत्तरी २४ परगना का महकुमा.) तारीख , उतना याद नहीं आ रहा है,  क्यों की बार-बार वहा जाता ही रहता था.कोर्ट या कोल्लेज के काम से.ब्याराकपुर से घर लौटने के समय ,मुझे एक मित्र की याद आ गयी,सोंचा उससे मीलता चलू.वह मित्र श्रीराम पुर में था यानि हूगली नदी के उस पार और  ब्याराकपुर से श्रीरामपुर जाना सहज और नजदीक था  क्यों की नदी पार करते ही श्रीरामपुर आया.अर्थार्त नदी इस छोर पर ब्याराकपुर तो दूसरी छोर पर श्रीरामपुर..किन्तु नदी को पार करना जरुरी था.प्रति  घाट पर , इस पार से उस पार जाने के लिए  , नाव के  या  स्टीमर के साधन उपलब्ध थे..इच्छा थी , अतः  घाट की और चल दिया .जिस घाट पर गया , वहा नाव के साधन उपलब्ध थे.दोपहर के डेढ़ बजे होंगे.नावो को पहले आओ और पहले जावो ,के आधार पर काम करना पड़ता था.

                     मैंने देखा एक नाव भरी जा रही थी.उस पर जाकर बैठ गया.लोग आते रहे और बैठते रहे.करीब पचास.पैसठ लोग सवार हो चुके थे.हमारे बंगाली भाईयो की आदत है,जहा रहेंगे वहा कुछ न कुछ बोलते रहेंगे.चाहे राजनीति हो या कार्यालय की बात. और नहीं हुआ तो, तास के पत्ते लेकर बैठ  जायेंगे.नाव पर काफी शोर-गुल था.नाविक ने नाव को खोल दिया और मोटर स्टार्ट किया  ,चुकी मोटर बोट था.किसी को पानी के सीमा की चिंता नहीं थी.नाव चल पड़ी.  ज्यो-ज्यो नाव मजधार की और बढ़ी ,नाव के ऊपर का शोर -गुल कम होता चला गया. क्यों की हमने देखा की  , बिच में पानी की धारा काफी तेज थी. नदी बरसात की पानी से लबालब थी .नाव नाविक के कंट्रोल में नहीं आ रही थी.वह जिधर जाना चाहता था, वहा से नाव धारे में बहने लगी थी. और तो और , नाव पानी से बस सिर्फ तीन या चार इंच ही ऊपर थी .नदी की लहर उछाले मार रही  थी .सभी की घिघी बंद हो गयी.सबने यह सोंच लिया की आज कहानी ख़त्म........  थोड़ी सी करवट नाव को डुबोने के लिए काफी थी.मुझे आशा है सभी ने उस समय अपने ईस्ट देव को जरुर याद किया होगा.......  कहते है एक छोटा सा छिद्र नाव को डुबोने के लिए काफी है,वैसे ही किसी महान इन्सान की वजह से ,  उस दिन वह नाव डूबने से बच गयी   और  हम सब लोग ,  बड़ी मसकत के बाद ,दुसरे किनारे पर सुरक्षित पहुँच गए...... सभी के मुख में यही शब्द  थे ..बाप रे  बाप..जान बेचे गालो..  की भयंकर जल.

                      तो..जान बची लाखो पाए... आज उस दिन की याद करते ही.रोंगटे  खड़े हो जाते है और उसके बाद नाव पर चढ़ने की  दुष्साहस  नहीं करता . जीवन में  पानी ही पानी है .जो आज हमारे पास है,वह कल भी रहेगा जरुरी..  नहीं..  क्यों की सम्पनता पानी है .यह किसी के पास गारंटी देकर नहीं रहता.   इसके कोई आकार नहीं. जिधर गया ...उसी  का  हो लिया. यह तो   रमता योगी - बहता  पानी  है.. फिर   जिन्दगी में....  .हाय..हाय..कैसा.  ?
                          

5 comments:

  1. आपका संस्मरण रोचक लगा। हम भी कई बार उस मोटर वाली नाव से चांपदानी, इछापुर से उस पार वैद्यबाटी गए है।

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  2. सुंदर संस्मरण..... हाँ यह सच है की हमारे बच्चे उस स्वाद से सचमुच वंचित हैं...... आखिरी पंक्तियों का सन्देश सुंदर है.......

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  3. श्रद्धा व धैर्य, दो बैल हैं, यहाँ से बाहर ले जाने के लिये।

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  4. बहुत अच्छा लगा संस्मरण। खूब भालो।
    कारण भी है, जिंदगी के हसीन साल बंगाल मे ही गुजरे हैं। गंगा के दोनो तरफ, पहले कोननगर फिर कांकीनाड़ा। दोनो जगहों से आप परिचित ही होंगे।

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  5. सबसे पहले आप सभी बिभुतियो को मेरा प्रणाम स्वीकार हो.चाहे प्रवीण सर हो ,मोनिका जी हो ,और सबसे अलग सा ,मनोज जी और गगन शर्मा जी.मेरे काफी करीब के मुझे मील गए.आप लोगो ने ठीक ही कहा-मै हर क्षेत्र से वाकिफ हूँ क्यों की मै जगतदल में ही जन्मा,पढ़ा लिखा और बड़ा हुआ.आप लोगो ने मेरे पोस्ट को सराहा,यह वाकई मेरी खुसनासिबी है क्यों की मै वैसे कोई लेखक तो नहीं हूँ.कुछ और कही-कही सब्दो में कोई त्रुटी आये तो क्षमा प्रार्थी हूँ.वह जीवन क्या जिसकी कोई कहानी न हो.इसी से मुझे अपने बारे में कुछ लिखने की प्रेरणा मिलती है.आप मेरे पोस्ट सदैव पढ़े,मेरे पास आप बीती और क्या स्वपन भी सच्चे होते है की पुलिंदा भरी पड़ी है,जो काफी रोचक और शिक्षाप्रद भी होंगी...फिर से आप सभी का एक बार धन्यवाद.

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