लोको पायलट भारतीय रेल के रीढ़ की हड्डी है ! इनके लिए न कोई त्यौहार है , न ही उत्साह ! बस दिन - रात चलते रहते है , उस ट्रेन के चक्के के साथ ! यु कहे की ये एक तरह से कोल्हू के बैल की तरह है ! दिन हो या रात ..चलते ही रहना है ! रुक गयी तो परेशानी ही परेशानी ! जीवन चलने का नाम है ! इनके जीवन में , एक चीज बहुत ही महत्त्व पूर्ण है ! वह है रात की नींद ! इन्हें सौभाग्य से ही , एक पूरी रात सोने के लिए मिलती है ! अतः रात में काम और दिन में खूब सोना जिंदगी का रूटीन सा हो गया है !!जब भी अवसर मिला ...सोने में मस्त !
कभी आधी रात को ड्यूटी में जाना पड़ता है , तो कभी पूरी रात के लिए ! रात में ड्यूटी के वक्त .. एक सेकेण्ड के लिए भी पलक झपकाना , खतरे से खाली नहीं ! अजीव सा जीवन है ! आप एक सेकेण्ड के लिए , लोको पायलट बन कर( सभी चीजो की ) अनुभूति कर सकते है ! किन्तु बहुत ही शानदार जीवन है , यहाँ आप को एक अनुशासित जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है ! बिना अनुशासन के जीवन दूभर हो जाता है !
बात तारीख ०१-०७-२०११ की है ! मै सोलापुर आराम गृह में अच्छी नींद में सो हुआ था ! साधे ग्यारह बजे रात को काल बॉय मुझे उठाया , चुकी ट्रेन संख्या -१२६२८ ( नयी दिल्ली से बंगलुरु एक्सप्रेस ) समय से चल रही थी ! मै पूरी तरह से तैयार होकर डायनिंग रूम में आकर सोफे पर बैठ गया और सहायक के आने की इंतज़ार करने लगा ! कुछ लोको पायलटो को बरांडे में शोर - गुल करते देखा ! मुझे ज़रा खीज भी आई ! इसलिए की ..सोने के ac समय , ये लोग इधर - उधर टहल रहे है ! बहुमूल्य वक्त खराब कर रहे है !ये लोग सो क्यो नही जाते ?
खैर , थोड़े समय बाद कूक चाय का प्याला मेरे सामने रख गया ! मै चुसकी ले ही रहा था की युनुस ( रेस्ट रूम का केयर टेकर ) मेरे सामने एक बोतल ला कर , तिपाई पर रख दिया !बोला सर - देखिये ?
मैंने जो देखा ..आप भी देंखे ?
जी हाँ बोतल में सर्प ! मैंने युनुस से पूछ बैठा ! ये कैसे ? उसने कहा - यह बाहर से आकर ..आप के रूम के तरफ जा रहा था ! यह तो ठीक हुआ की मैंने देख लिया अन्यथा किसके पलंग या बैग में घुस जाता , किसी को नहीं मालूम ? मैंने उसे शाबासी दी और कहा - बहुत अच्छा काम किये जी ! इसे अपने अफसर लोगो को दिखाओ ? इस हालत में रेस्ट रूम कितना सुरक्षित है ? अब तो इस रेस्ट रूम में जल्द नींद भी नहीं आएगी ? संयोग अच्छा था जो तुमने इसे पकड़ लिए ? इसके बाद मैंने और दो तस्वीर लिए वह भी देंखे -
युनूस बोतल को पकडे हुए !
रेस्ट रूम कूक बोतल को खडा किये हुए !
दो जुलाई को ..मै गुंतकल आ गया ! फिर तारीख ०३ -०७-२०११ को ट्रेन संख्या -१२१६३ (दादर से चेन्नई ) को लेकर रेनिगुंता गया ! वहा भी शाम पांच बजे , जब रेस्ट रूम में गया , तो देखा .. वाच मैन एक सर्प को मार रहा था ! देंखें -
वाच मैन डंडे के साथ
वाच मैन ने सर्प को मार कर बीच में जख्मी कर दिया था ! वह सर्प एक अमरूद के तने के एक खोह में छिपा हुआ था ! पौधों में जल डालते समय , माली ने सर्प को देखा था !
वाच मैन ने सर्प को मार कर बीच में जख्मी कर दिया था ! वह सर्प एक अमरूद के तने के एक खोह में छिपा हुआ था ! पौधों में जल डालते समय , माली ने सर्प को देखा था !
इन घटनाओं को देखने से ऐसा लगता है की आज - कल हमारे रेस्ट रूम सजावट की वजह से सुरक्षित नहीं है ! रेलवे प्रशासन ने रेस्ट रूम के चारो तरफ छोटे - छोटे पौधों को लगा रखा है , जो मच्छर और इन निरीह जन्तुओ के आश्रय बन जाते है ! गाहे - बगाहे अगर किसी ने गलती कर दी तो परिणाम भुगतने पड़ जाते है !उपरोक्त घटनाए कोई नई नहीं है ! इस तरह की कई घटनाए मेरे जेहन में बहुत सी है , जिन्हें मै बाद में समयानुसार पोस्ट करूंगा ! उन्हें सोंच कर रोंगटे खड़े हो जाते है ! मैंने इन तस्वीरो को डी.आर.एम्./सोलापुर और गुंतकल मंडल को इ- मेल कर दी है !
आप सभी से निवेदन है की एक सुन्दर शीर्षक सुझाए ! अगली पोस्ट लिखने के पूर्व ही पसंदीदा शीर्षक (.आप के नाम के साथ ).ऊपर पोस्ट कर दूंगा ! कोशिश करके देंखें !
बहुत तकलीफदेह स्थिति .............
ReplyDeleteरही बार शीर्षक की तो मेरे विचार से ..........'खतरों से खेलती जिंदगी ' अच्छा लगता है
शीर्षक तो नहीं दे सकता, पर बहुत ही रोचक,
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सौन्दर्य से पहले सुरक्षा?
ReplyDeleteयदि सभी कर्मचारी आप और यूनुस जैसी जागरूकता रखें तो दुनिया कितनी सुरक्षित और सुन्दर हो जाये!
संभवतः हरा भरा परिवेश और वर्षा का प्रारम्भ इसका प्रमुक कारण है। अपनी ओर से तो सावधानी बनाये रखें।
ReplyDeleteएक पुरानी कहावत है अँधेरे में 'रस्सी में सर्प' का भ्रम हो जाता है.यहाँ तो लगता है रेलवे प्रशासन 'सर्प में रस्सी' का भ्रम पाले है.
ReplyDeleteमेरा शीर्षक मैंने लिख दिया है,बाकी जो आपको अच्छा लगे.
सर्प का प्रणय निवेदन आजकल मीटिंग सीज़न चल रहा है .जीवन संगनी को ढूंढ रहा होगा .इससे सिद्ध होता है आपका परिवेश हरा भरा वातायन है .एक पूरा इको सिस्टम है .सर्प आदमी का मित्र है .नाहक न मारें ,उसे ,जाने दें ,चुपचाप चला जाएगा .सोते हुए प्राणि को कदापि न काटेगा .
ReplyDelete'जाको राखे साईयाँ मार सके न कोय'यह पुराणी कहावत ही उपयुक्त शीर्षक लगती है.आप बचपन में अपनी माताजी द्वारा भी सर्प रक्षा का जिक्र कर चुके हैं अतः सर्प को न मारना ही उचित है.
ReplyDeleteबहुत -बहुत आभार |
ReplyDeleteइस से बहुत डरता हूँ भाई ||
थोडा सचेत रहना ज़रूरी है.... 'चलना ही जीवन है' अभी तो यही दिमाग में आ रहा है.....
ReplyDeleteबरसातों में जगह-जगह यही हाल है।
ReplyDelete०२ जुलाई को मै गुंतकल आ गया ! उस रात उन्हें बोलना भूल गया की सर्प को छोड़ दिया जाए ! यह बात मुझे दुसरे दिन भी सालती रही , जब मै रेनिगुन्ता में था ! चौथे जुलाई को मै गुंतकल वापस आ गया , अचानक प्लेटफार्म पर वह कूक ( सोलापुर वाला ) मिल गया ! मैंने उससे पूछ लिया - उस साप को तुम लोगो ने क्या किये ? उसने कहा की सुबह साहब लोग आये थे और उस सर्प को देखने के बाद दूर जंगलो में छोड़ दिया गया ! यह सुन कर मुझे बहुत शान्ति मिली !
ReplyDeleteमुझे बहुत डर लगता है जब कभी साँप को खुले में देख लेता हूँ.एक दो कहानी अपने गाँव की याद जरुर आई इस पोस्ट से.
ReplyDeleteवैसे ट्रेन ड्राइवरों की बात से याद आया, अभी कुछ दिनों पहले बैंगलोर से पटना जा रहा था.दो ट्रेन ड्राइवर युहीं कुछ देर के लिए ट्रेन में चढ़े..हमारे कोम्पर्टमेन्ट में कुछ अच्छे सहयात्री बैठे थे, तो ड्राइवर महाशय भी अच्छे से घुल मिल गए थे..उनसे एक यात्री ने पूछा की आप लोगों को गाड़ी चलाते वक्त नींद नहीं आती?
ReplyDeleteड्राइवर महाशय ने कहा "हुजुर हमें नींद आ गयी अगर तो पुरे ट्रेन के यात्रियों को शायद हमेशा के लिए सोना पड़े" :)
"सतर्कता हर जगह ." केवल उस समय नहीं जब आप कुछ कर रहे है, उस समय भी जब आप कुछ भी नहीं कर रहे है.
ReplyDeleteमासूम जानवर है जो अपनी योनी भोग रहे हैं...इन हे मारकर या बोतल बंद कर के क्या फायदा ...जो इंसानी सांप है और खुले भी घूम रहे है ..उनका क्या ???
ReplyDeleteशुक्रवार को आपकी रचना "चर्चा-मंच" पर है ||
ReplyDeleteआइये ----
http://charchamanch.blogspot.com/
मुझे लगता है कि खतरे में आप और सांप दोनों ही हैं। सांप को भी जान से हाथ धोना पड़ा और रेस्टरूम में आने वाले ड्राइवर भी उतने ही खतरे में हैं। इसलिए शीर्षक भी यह हो सकता है-खतरे में आप और सांप
ReplyDeleteआपकी रेलवे ही तो कहती है, ’यात्री अपने सामान के खुद जिम्मेदार हैं’, इसीसे प्रेरणा लेकर शीर्षक सुझाते हैं, ’कर्मचारी अपनी जान के खुद जिम्मेदार हैं।’
ReplyDelete"जीवन के अनुभव" ... ये सब अनभव ही तियो हैं तो जीने का ढंग दे जाते हैं ...अच्छी पोस्ट है ...
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