ये भाई जरा देख के चलो
दायें भी नहीं , बाएं भी ,
आगे भी नहीं ... पीछे भी
ऊपर भी नहीं , निचे भी | यानी चारो तरफ से सतर्क |
या
या
चाँद न बदला , सूरज न बदला ...पर
कितना बदल गया इन्सान ?
जी | सही भी है | हर क्रिया के पीछे प्रतिक्रिया छिपी होती है | बहुत से जिव - जंतु घास खा सकते है | घास खाने वाले अपने अंग से दूध विसर्जित कर सकते है | जो किसी दैविक शक्ति से कम नहीं | मानव वर्ग सुन्दर से सुन्दर खाद्य सामग्री खाकर भी नमकहराम हो जाते है | उनके द्वारा विसर्जित तत्व अनुपयोगी साबित होते है | थोड़े समय के लिए सोंचे - दुनिया के सभी मानव श्रेणी एक जैसी होते तो क्या होता ? क्या हम उंच - नीच , अल्प - ज्यादा आदी के अंतर समझ पाते ? बड़ा ही कठिन होता |
समानता में विखराव पण भी लाजमी है | यही वजह है कि हर व्यक्ति एक ही रंग या एक ही आकार - प्रकार व् पसंद वाले नहीं होते | सभी के अंगो से खुशबु( यश ) नहीं निकलती | पर यह सही है कि मानव के कार्यकलाप , गतिविधिया , हाव - भाव और आँखों की कलाएं ....उनकी पोल खोल देती है | या यूँ कहे कि सभी क्रियाएं मानव के दर्पण है | जो कभी झूठ नहीं बोलते | तिरछी आंखे , पलट -पलट कर देखना , अंगो को सिकोड़ लेना , गले लगा लेना ,सिर पर हाथ रखना वगैरह - वगैरह बहुत से अनगिनत शव्द है | जो राज को छुपाने नहीं देते |
कहते है -हमारे पूर्वज असभ्य और अशिक्षित थे | जंगलो और पहाड़ो में निवास करते थे | असभ्यता की जंजीरों में जकडे हुए , जीवन को जीते हुए ..सभ्यता के राह पर चल दिए | कहते है आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है | सब कुछ बदलने लगा , मानव की आवश्यकता के अनुरूप | धीरे - धीरे बदलाव आये | आग के से लेकर वायुयान तक के अविष्कार हुए | ध्वनि तेज हुयी | शर्म और हया की अनुभूति धागे और कपड़ो को विस्तार दिए होंगे | कपडे की अविष्कार की वजह तन को ढकना और सुरक्षित रखना ही था ,आज -कल की तरह नुमयिस नहीं | प्राकृतिक आपदाएं और अलग - अलग प्राकृतिक आवोहवा ने सूक्ष्म , पतले और कोमल कपड़ो को जन्म दिए |
मानवीय गुण और व्यवहार में विकास | रंगों के समागम और भेद | रंगों से पहचान बढ़ी होगी | गेरुवे , काले , सफ़ेद और रंगविरंगे परिधान -व्यक्ति के व्यक्तित्व को उजागर करने के माध्यम बने होगे | गेरुवे सन्यास , पुजारी ,काले विरोधक और सफ़ेद सादगी की पहचान बनी होगी | इस संसार को वक्त के थपेड़ो का शिकार होना पड़ा ,जो बदलाव के कारन बने | फिर भी आज भारतीय संस्कृति में बहुत कुछ है सुरक्षित है , जो वक्त के थपेड़ो को झेल गया , उसमे किसी प्रकार की बदलाव नहीं आई |
मानवीय गुण और व्यवहार में विकास | रंगों के समागम और भेद | रंगों से पहचान बढ़ी होगी | गेरुवे , काले , सफ़ेद और रंगविरंगे परिधान -व्यक्ति के व्यक्तित्व को उजागर करने के माध्यम बने होगे | गेरुवे सन्यास , पुजारी ,काले विरोधक और सफ़ेद सादगी की पहचान बनी होगी | इस संसार को वक्त के थपेड़ो का शिकार होना पड़ा ,जो बदलाव के कारन बने | फिर भी आज भारतीय संस्कृति में बहुत कुछ है सुरक्षित है , जो वक्त के थपेड़ो को झेल गया , उसमे किसी प्रकार की बदलाव नहीं आई |
भारतीय संस्कृति की धरोहर और मिसाल दुनिया में कहीं नहीं मिलती | मनुष्य के रहन - सहन और पहनावे बदलते गए | आज हमारे सामने रंग - विरंगी दुनिया खड़ी है | धोती ज्यो की त्यों हमारे सामने अडिग खड़ी है | जी हाँ ...धोती - कुरते और साडी दुनिया के किसी और छोर में विरले ही मिलते होंगे , अगर मिल भी गएँ , तो भारतीय मूल में ही होंगे | एक नारी के लिए उसके साडी की खुब सुरती नायब है |साडी में नारी की आभा खिल उठती है | वह भी सिर्फ भारतीय नारी की | साडी नारी के व्यक्तिव में निखार और सादगी लाती है | मजाल है जो कोई अंगुली उठा के देखे ? किसी विदेशी को साडी पहना कर देखे -आप हँसे न रह पाएंगे | भारतीय नारी की अस्मिता को ढंकती है --यह भारतीय सांस्कृतिक साडी | पर दुःख है की यह जिसके लिए निर्मित हुयी थी वह भी समय के साथ बदल गयीं | अपनी संस्कृति और धरोहर को छोड़ , हम पाश्चात्य के पीछे दौड़ने लगे | जरूरत से ज्यादा नकलची बन बैठे |
किन्तु हमारी भारतीय संस्कृति और यहाँ के संस्कार इतने कमजोर नहीं है , जो इतनी आसानी से बदल जाती | आज भी देश के कई क्षेत्रो में धोती - कुरते वाले मिल जायेंगे | जो एक महान देश के महान संस्कृति की परिचायक है | इसका सफ़ेद रंग सदाचार , सदगुण के धोत्तक है , अपवाद सवरूप कुछ होंगे जो इस पहचान को मिटटी में मिला रहे है , फिर भी हमारे भारतीय संस्कृति में धोती की गरिमा अवमुल्य है | शव्दकोश में धोती के पर्याय शव्द नहीं है | इतनी मजबूत है यह हमारी धोती | आज भी इस वस्त्र को धारण करने वाले अधिक आदर के पात्र होते है | अतः हम कह सकते है कि हमारे पहनावे , हमारे आकृति को बुलंदियों पर ले जाते है |
एक वाकया याद आ गया , जो प्रासंगिक है , प्रस्तुत है | वर्ष १९८८ -बंगलूर में गया हुआ था | उस समय जींस - पेंट का बाजार जोर लिए हुए था | जवान था | कुछ वर्ष पूर्व ही शादी हुयी थी | दोस्तों ने जोर दी एक सेट ले लो | एक जींस और टी - शर्ट खरीद ली | उस वक्त करीब सौ रुपये लगे | दुसरे दिन पत्नी के समक्ष पहन खड़ा हुआ | घर में बड़े मिरर नहीं थे , जो अपनी तस्वीर देख लेता | अपनी तस्वीर को दूसरों के आँखों में देखने पड़ते थे | जो प्राकृतिक ऐनक हुआ करते थे | पहले पत्नी की प्रमाणिकता जरूरी थी | पत्नी ने मुह विचका लिए | कुछ नहीं बोली | संसय में झेप गया | अरे भाग्यवान कुछ तो बोलिए ? क्या बात है ? पत्नी ने बहुत ही साधारण सी जबाब दी -" आप के व्यक्तित्व में नहीं खिलती है | " . ओह ये बात है | जींस पेंट और टी-शर्ट निकाल फेंका | जी यह भी सत्य है कि आज - तक उधर मुड़कर नहीं देखा | भाई को दे दी | वह भी पहनने से इंकार कर दिया | आज भी वह सेट माँ के कस्टडी में , माँ के प्यारे बॉक्स वाली अजायब घर में बंद है |
ये मेरे अपने विचार है , आप के अपने - अपने विचार व् भाव अलग - अलग हो सकते है | सभी स्वतंत्र है | इस लेख / पोस्ट का मतलब किसी के वैभव / पसंद को ठेस पहुँचाना नहीं है | हमारे संस्कार अटल है | हमारी संस्कृति अटल है | तभी तो धोती - कुरता के ऊपर इस टोपी की जादू नहीं चली | भारतीय संस्कृति हमारी धरोहर है | इसे बचाए रखना हमारा परम कर्तव्य है |
बहुत उम्दा प्रस्तुति ......
ReplyDeleterecent post....काव्यान्जलि: होली की हुडदंग ( भाग -२ )
:)
ReplyDeleteअनमोल है हमारी संस्कृति
ReplyDeleteअच्छा लगा आपका आलेख. परन्तु हमारी संस्कृति जींस पैन्ट और पाश्चात्य पहनावे से प्रभावित नहीं होती क्योंकि प्रभावित होती तो तब ही हो गई होती जब धोती की जगह पायजामा ने लिया. अगर साड़ी पहन कर बस पकड़ने को दौड़े तो खामियाजा देश की संस्कृति नहीं स्त्री भुगतेगी. आपने सही कहा कि हमारी संस्कृति अटल है, क्योंकि संस्कृति सोच से प्रभावित होती है. धन्यवाद.
ReplyDeleteबढ़िया टिपण्णी है आज की रहनी सहनी भाव मुद्रा कायिक भाषा बॉडी जुबां पर बोडी लेंग्विज पर .असली बात बता देता है चेहरा .
ReplyDeleteपहनावे से ज्यादा अच्छी रीतियों की रक्षा हमारा कर्तव्य है ...
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