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Saturday, December 5, 2015

प्रकोप

जीवन संघर्ष का नाम है तो मृत्यु चिर बिश्राम । यही जीवन का यथार्थ है । जन्मते ही मृत्यु की तरफ अग्रसर होना एक चिंता का विषय हो सकता है पर कुछ कर सकने के लिए दिनोदिन समय का अभाव भी तो है । जीवन  - मृत्यु की सच्चाई हमारे सामने मुंह बाये खड़ी रहती है और हम है जो व्यर्थ के कामो में समय बर्बाद कर रोते रहते है । आंसुओ की धारा हमारे अभाव को कभी नहीं धो सकती । अभाव को आत्मशक्ति और कुछ कर सकने की सबल इच्छा शक्ति ही पार लगा सकती  है । हँसने वाले का साथ सभी देते है रोने वाले का साथ बहुत कम ।

हम कितने स्वार्थी होते है जब अपने स्वार्थ में बशीभूत हो दूसरे के अधिकारो को मसलने में थोडी भी सकुचाहट महसूस नहीं करते । आज के परिप्रेक्ष्य में ऐसे स्वभाव लोकतंत्र के पर्याय नहीं हो सकते । लोकतंत्र हमें दुसरो के अधिकारो की ऱक्षा के लिये वाध्य करता है । अन्यथा प्रकोप अतिसंभव । 

30 सितम्बर 1993 की वो डरावनी रात । आज भी याद है । प्रकोप को कुछ भी नजर नहीं आता । न धर्म की पहचान न इंसान की न ही किसी के स्वाभिमान की । सभी कुछ इसके चपेट में आकर नष्ट हो जाते है । जो शेष  बच जाते है उनके पास रोने और बोने के सिवा कुछ नहीं बचता । उस रात मैं रायचूर में कार्यरत था । नाईट ड्यटी में तैनात था । अपने ऑफिस यानी लॉबी में कुर्सी पर बैठे क्रू पोजीशन की लेख जोखा देख रहा था । करीब रात के दो बज रहे होंगे । प्लेटफॉर्म पर सन्नाटा छाया हुआ था । कोई ट्रेन आने वाली नहीं थी । सिर्फ चेन्नई एक्सप्रेस के क्रू को तीन बजे कॉल सर्व करना था । कॉल बॉय पास के बेंच पर सो रहा था करता भी क्या । यह भी स्वस्थ रहने का एक सदुपयोग है ।

अचानक मुझे जोर का झटका लगा और जैसे मेरे कुर्सी को कोई पकड़ कर हिला रहा हो । मैंने समझा की कॉल बॉय मेरे कुर्सी को झकझोर रहा है । मैं बुक में कुछ लिखते हुए ही जोर से डपट लगायी  । अरे ये क्या कर रहे हो । फिर मुड़ कर देखा , कॉल बॉय अपने बेंच पर इतमिनान से सो रहा था । पीछे मुड़ कर देखा वहा भी कोई नहीं था । स्टेशन में किसी ट्रेन के आने की आवाज सुनाई दी । पर कोई ट्रेन नहीं आई ।शरीर में थोड़े समय के लिए सिहरन पैदा हो गयी । शायद कोई शैतानी प्रकोप तो नहीं । तभी कंट्रोल रूम का फोन बजा । कंट्रोल साहब ने पूछा - रायचूर में भूकंप आया है क्या ? मैंने कहा नहीं पर हाँ  जोर की ध्वनि और कुर्सी जरूर हिलते हुए महसूस किया हूँ । कंट्रोलर ने कहा यही तो भूकंप के झटके है ।

जी हाँ जो भी महसूस हुआ था वह भूकंप ही था । चारो तरफ समाचार फ़ैल गया । दूसरे दिन सभी समाचार पत्रो  ने बिस्तृत रिपोर्ट छापे । महाराष्ट्र के लातूर में इस भूकंप से काफी तबाही हुयी थी । सरकार बचाव कार्य में जुट  चुकी थी । बहुत जान माल की नुकशान हुई थी । महाराष्ट्र और आस पास के राज्यो में सतर्कता की सूचना दे दी गयी । एक सप्ताह तक सभी पडोसी  राज्यो के लोग रात को घर के बाहर सोते रहे  । अंततः ये प्रकोप की घटनाये होती क्या है ? बिज्ञान ने इसे  तरह तरह के क्रिया और प्रक्रिया  के परिणाम बताते रहे है । कुछ ईश्वरीय गुस्सा । जो कुछ भी हो इतना तो सत्य है जो बोएगा वही काटेगा । कुछ तो है जो हमें हमारे कर्मो की सजा देता है । मनुष्य की शक्ति के आखिरी छोर के बाद ही तो वह है जिसे ईश्वर के नाम से जानते है । जिसकी शक्ति अनंत और अंतहीन है । मानो तो देव नहीं तो पत्थर ।

Saturday, August 23, 2014

आधुनिक आचरण

" बहुत बेशर्म हो जी |" मुझे गुस्सा आ गया और अनायास ही ये शव्द मेरे मुह से निकल पड़े | बगल में बैठी पत्नी भी घबड़ाते हुए पुछि -"_ क्या हो गया ? मै पत्नी के प्रश्नो का जबाब देता की वह युवा बोल उठा - " किसे बोल रहे है ? " 

उसके ऐसा कहते ही मै और भड़क गया | उसे डाटते हुए बोला - " गलती करते हो और सीना जोरी भी | सॉरी कहने के वजाय मुह लड़ाते हो ? यही शिष्टाचार सीखे हो ? थोड़ा भी संस्कार नहीं है और पूछते हुए शर्म नहीं आती है ? " अभी तक उस युवक को यह समझ नहीं आया की उसकी क्या गलती थी ? वह चुप हो गया | 
युवा का विपरीत वायु होता है | युवाओ को जोश में बुरे या अच्छे का ज्ञान नहीं होता |
मै पत्नी की तरफ देखते हुए बोला - " देखो जी इस भोजन के नजदीक पैर रख दिया | " अब क्या था पत्नी  भी उस युवक को खरी - खोटी सुनाने लगी | वह युवक निःशव्द हो गया | उसे अपने गलती का एहसास हो चुकी थी | उसने कहा - सॉरी अंकल | 

 उस दिन १९ जून २०१४ था और हम पवन एक्सप्रेस के दूसरी दर्जे के वातानुकूलित  कोच में यात्रा कर रहे थे | एक लोअर , एक उप्पर बर्थ हमारा था | बालाजी अलग साईड बर्थ पर थे | उस युवक का बर्थ हमारे विपरीत वाला ऊपर का था | मै दोपहर का भोजन कर रहा था | सभी खाने कि सामग्री लोअर बर्थ पर फैली हुयी थी | वह युवक टॉयलेट से आया और सीढ़ी से ऊपर बर्थ पर न जाकर  दोनों लोअर बर्थ के ऊपर पैर रखते हुए छलांग लगाया और अपने ऊपर के बर्थ पर चढ़ गया | ऐसा करते वक्त उसके एक पैर मेरे खाने के प्लेट से सिर्फ चार अंगुल दूर थे | इस गन्दी  हरक्कत को भला कौन बर्दाश्त कर सकता है ?

प्राचीन काल से इस आधुनिक युग कि तुलना काफी अलग है | शिक्षा के स्वरुप काफी विकसित और अभूतपूर्व है | उसके मुताबिक मनुष्य के रहन - सहन में काफी बदलाव आएं है | किन्तु इन सब के बावजूद  मष्तिष्क निधि के गिराव जोरो पर है | परमार्थ , हितकारी , मददगार , उपयोगी  शिष्टाचार जैसे गुड़ी शव्दो का कोई महत्त्व नहीं रहा | जिसके लिए हमारे पूर्वज जान भी दे देते थे |  

यही शायद असली कलयुग है | उच्च शिक्षा का मतलब यह कतई नहीं कि हम अपने सामाजिक कर्तव्य और शिष्टाचार को भूल जाय | शिष्टाचार का स्वरुप ऐसा हो कि हम जो भी कार्य करें उससे किसी को भलाई के सिवा कुछ न मिले | जो भी हो हमें समाज से सतर्क और समय से जागरूक होनी चाहिए | एक अनुशासित व्यक्ति , परिवार , समाज ,राज्य और देश के  स्वस्थ वातावरण को जीवित रख सकता है | सोंचने वाली बात है - क्या मै अनुशासित और शिष्टाचारी हूँ ? 

हमारे मनीषियों ने काल को कई खंडो में विभाजित किया है । आदि , वर्त्तमान या भविष्य जो भी हो एक विभिन्नता से भरपूर है । 
बलिया में उतरने के पूर्व - चलते - चलते कुछ सुझाव भी दे डाला | दुखी मत होवें हमेशा खुश रहे |  जीवन में कभी कोई गलती हो जाए  , तो मुझे याद कर लेना | हिम्मत और शक्ति मिलेगी |

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Wednesday, July 23, 2014

दयनीय पिता और अर्थहीन दशा



आज बहुत दिनों के बाद शकील मुझे मिला था । वह उस डिपो में चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी था । मुझेबहुत ही आदर करता  था । यह उसकी अपनी बड़प्पन थी । वह देखते ही सलाम किया । मै भी मुस्कुराते हुए स्वीकृति में हाथ उठा दिया और उससे पूछा - कहो शकील कैसे हो ? गुंतकल कैसे आना हुआ ? सर ऑफिस काम से ही आया हूँ । बातो - बातो में यह भी पूछ लिया - परिवार कहाँ रखे हो ? और हा वह नवीन कैसा है ? परिवर गुंतकल में ही है सर । फिर वह कुछ उदास सा हो गया । आगे कहने लगा -सर आप के ट्रांसफर के करीब दो - तीन महीने बाद ही नवीन का देहांत हो  गया ।मेरा  मुह आश्चर्य से खुले के खुले रह गए । पूछा - वह कैसे हुआ ? क्या बीमार था ? नहीं सर । लोग कहते है - स्टोव से जल कर मर गया । 

अजीब समाचार था । घर आया । दिल में  एक अनजाने दर्द ने घर कर  लिया जैसे मैंने घोर अपराध कर दिए हो । बातो ही बातो में इस घटना की जिक्र पत्नी से भी कर दिया । पत्नी ने अफ़सोस जाहिर की  । पत्नी बोली - आप ने गलती कर दी अन्यथा ऐसी घटना नहीं होती थी । उस वक्त उसे आप को उसकी  मदद करनी चाहिए थी । मैंने लम्बी साँस ली । किसे मालूम था एक दिन ऐसा भी होगा ?


उन दिनों मै एक छोटे से डिपो में कार्य करता था । शाम का समय । अभी - अभी ड्यूटी से उतरा था । पत्नी चाय नास्ते बनाने के लिए किचन के अंदर व्यस्त थी । मै बाथ रूम में मुह -हाथ धोने के लिए अंदर गया । तभी दरवाजे पर लगी काल बेल को किसी ने दबाया । घंटी बजी , पत्नी ने बाहर जाकर देखने की प्रयत्न की । नवीन आया है । पत्नी ने आवाज दी ।  अरे अभी - अभी ही गाड़ी लेकर आया हूँ , यह क्यों आ गया ? ठीक  ही कहते है इन पियक्कड़ों की कोई भरोसा नहीं होती ? पैसे की कमी पड़ी होगी ? बाथरूम में मन ही मन बुदबुदाया और पत्नी से बोला - कह दीजिये थोड़ा इन्तेजार करे । अभी आया । 

घर से बाहर निकला । देखा नवीन दोनों हाथो को सामने सीने के ऊपर मोड़े  हुए स्थिर खड़ा था । लम्बा , गोरा और पतला छरहरा आधे उम्र का इंसान । मुझसे उम्र में बड़ा किन्तु प्रशासनिक पद में छोटा था । देखते ही नमस्कार किया और सहमे हुए खड़ा रहा । शायद उसके मुह से कोई शव्द नहीं निकल पा रहे थे । मैंने ही पूछ लिया  - कहो क्या बात है ? देखा उसके चहरे पर उदासी झलक रही थी । सर एक जरूरी काम है । कहो ? मैंने हामी भरी । सर मै रेलवे नौकरी से स्वैक्षिक अवकाश लेना चाहता हूँ  कृपया एक दरख्वास्त लिख दे । 

वस इतनी सी बात । कल सुबह भी आ सकते थे ? किन्तु मेरा मन कारण जानने के लिए जागरूक हो गया । सच में आखिर इसकी क्या वजह है ? कोई मेहनत की नौकरी भी नहीं है । इसके पिने की लत से सभी वाकिफ  है । सभी एडजस्ट भी करते है । मैंने उससे पूछ ही डाला -" नवीन आखिर क्यों ऐसा करना चाहते हो ? " वह रोने लगा । बोला - " सर मेरा बेटा मुझसे कहता है ,जा के कहीं  मर क्यों नहीं जाते । कम से कम उसे एक नौकरी मिल जाएगी अन्यथा हम ही किरोसिन छिड़क कर तुम्हे मार डालेंगे ।"  मै इसे  गम भीरता से नहीं लिया और उसे समझा बुझा कर -कल सुबह लिख दूंगा कह कर बिदा कर दिया । फिर वह कई बार मिला किन्तु दरख्वास्त लिखने की अनुरोध कभी  नहीं  दुहरायी । 

आज मन विचलित था । शायद उसने सही अभिव्यक्ति की थी । एक दयनीय पिता अपने दयनीय अर्थ से परास्त हो चूका था । काश ऐसा न होता । संसय कहाँ तक उचित है - कह नहीं सकता । ( नाम और स्थान काल्पनिक किन्तु सत्य ) 

यह भी पढ़ सकते है -आप का एक   handle-with-care 



Friday, May 23, 2014

कुशल प्रशासक

मनुष्य किसके अधीन है किस्मत या कर्म , यह कह पाना बड़ा ही कठिन है ।मनुष्य सामाजिक प्राणी है । इसे घर के अंदर परिवार से तो बाहर समाज से सामना करना पड़ता है । हर व्यक्ति के स्वाभाव में हमेशा ही अंतर दिखती है। सभी के कार्य कलाप और व्यवहारिक दिशा भिन्न - भिन्न तरह  की  होती है । कुछ में बदलाव के कारण पारिवारिक  अनुवांशिकता , तो कुछ में स्वतः जन्मी असंख्य सामयिक और बौद्धिक गुण होते  है । यही कारण है कि सभी व्यक्ति अपने - अपने क्षेत्र में विभिन्नता से परिपूर्ण  होते है ।

चोर चोरी के तजुर्बे खोजने में माहिर तो पुलिस चोर को पकड़ने के तिकड़म में सदैव लिप्त रहते है । वैज्ञानिक विज्ञानं कि तो व्यापारी व्यापर लाभ की  । सभी कि मंशा के पीछे स्वयं का हित ही छुपा होता  है । जो इस क्षेत्र के बाहर निकलते है , वही महात्मा कि श्रेणी में गिने जाते है या महात्मा हो जाते है क्योकि उनके अंदर परोपकार कि भावना ज्यादा भरी होती है । पेड़ पौधे अपने फल और  मिठास को दान कर , सबका प्रिय हो जाते है ।

आज - कल सरकारी दफ्तरों को सामाजिक कार्यो से कोई सरोकार नहीं है । दूसरे की भलाई से कुछ लेना - देना नहीं है । जो शासन के पराजय और भ्रष्टाचार का एक विराट रूप ही है ।  इसका मुख्य कारण दिनोदिन हो रहे नैतिक पतन ही तो है । भ्रष्टाचार ही है । अनुशासन हीनता है । एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ है । इस कुबेर की भाग दौड़ में सिर्फ साधारण जनता ही पिसती है । इस प्रथा के शिकार साधारण जन ही होते है । कोई नहीं चाहता कि उसे किसी कार्य हेतु कुछ देने पड़े । एक कार्य के लिए दस बार दौड़ने के बाद स्वतः मनुष्य  टूट जाता है और इस नासूर से छुटकारा पाने के लिए मजबूरन असामान्य पथ  को अखतियार कर लेता   है ।लिपिको के पास कमाई से ज्यादा धन कहाँ से आ जाते  है ? ऑफिसरो के पास अनगिनत सम्पति के सोर्स कौन से है ? घरेलू पत्नी करोडो की मालकिन कैसे हो जाती है ।स्कूल में पढने वाले बच्चे के अकाउंट में लाखो कैसे ?

ऐसे ही परिस्थितियों के शिकार यि. सि. यस राव ( लोको पायलट ) थे । जिनका मन पत्नी के देहांत के बाद अशांत रहने लगा था । कार्य से अरूचि होने लगी थी । इस अशांत मन से ग्रसित हो  गाडी चलाना सुरक्षा की दृष्टि से एक गुनाह से कम नहीं था  । उनका मन नहीं लग रहा था  । अतः उन्होंने यह निर्णय लिया  कीअब  स्वैक्षिक अवकाश ले लेना चाहिए । कई राय सुमारी के बाद दरख्वास्त लगा दिए । इस अवकाश के लिए अधिक से अधिक तीन महीने ही लगते है । तीन महीने भी गुजर गए , पर अवकाश की स्वीकृति का पत्र नहीं आया । एक लिपिक से दूसरे लिपिक , एक चैंबर से कई चैंबर काट चुके । बात  बनती नजर नहीं आई । दोस्तों से आप बीती सुनाते  रहे । सुझाव मिली , कुछ दे लेकर बात सलटा लीजिये । किन्तु सदैव अनुशासन की पावंद रहने वाला व्यक्तित्व भला ये कैसे कर सकता था । उन्होंने और अन्य साथियो ने मुझसे इस केश को देखने का आग्रह किये ।

यह शिकायत हमारे समक्ष आते ही लोको रनिंग स्टाफ  का मंडल सचिव होने के नाते मेरी और संगठन की  जिम्मेदारी बढ़ गयी । अपने अध्यक्ष के साथ  मै इस केश में जुट गया । लिपिक और कुछ कनिष्ट ऑफिसरों से मिलने के बाद पता चला की यि. सि. यस राव के सर्विस रिकार्ड्स के कुछ डाक्यूमेंट्स गायब थे । इसी की वजह से केश पेंडिंग था । हम कनिष्ट पर्सनल अफसर से जाकर मिले । उसने वही बात दुहरायी । हमने कहाकि डॉक्यूमेंट आप के कस्टडी में था , फिर पेपर गायब कैसे हुए ? जैसे भी हो इस महीने में अवकाश पत्र मिल जाने चाहिए , अन्यथा वरिष्ठ ऑफिसरों से शिकायत करेंगे । उस अफसर के कान पर जू तक न रेंगा । महीने का आखिरी दिन भी चला गया ।

हमने एडिशनल मंडल रेल प्रबंधक श्री राजीव चतुर्वेदी जी से शिकायत की । राजीव जी बहुत ही नम्र किन्तु अनुशासन प्रिय अफसर थे । हमने सोंचा  की ये भी दूसरे अन्य  ऑफिसरों  की तरह कहेंगे - ठीक है केश देखूंगा और केश जस का तस डस्ट बिन में पड़ा रहेगा । पर यह धारणा  बिलकुल गलत साबित हुई  । उन्होंने तुरंत उस कनिष्ट पर्सनल अफसर को हमारे सामने ही तलब  किया । वह अफसर आया और हमें  यहाँ देख , उसे मामले की गंभीरता  समझते देर न लगी । ADRM  साहब ने उनसे पूछा -यि. सि. यस राव का केश क्यों पेंडिंग है । वह अफसर शकपकाया और कहा - सर एक हफ्ते में पूरा हो जायेगा । तब श्री राजीव चतुर्वेदी जी ने उन्हें हिदायत दी -  " लोको पायलट बहुत ही परिश्रमी कर्मचारी हैं । उन्हें हेड क्वार्टर में आराम की जरूरत होती है । मै नहीं चाहता कि कोई भी लोको पायलट अपने ग्रीवेंस के लिए आराम के समय ऑफिस का चक्कर काटें ।  आप खुद लोको पायलट होते , तो किस चीज की आकांक्षी होते  ? "

न्याय के इस विचित्र पहलू से हमें भी हैरानी हुयी , क्योकि इस तरह के अफसर बहुत काम ही मिलते है । हमने ADRM  साहब  धन्यवाद दी । कुछ ही दिनों में सफलता मिली और यि. सी यस राव का स्वैक्षिक अवकाश का पत्र समयानुकूल आ गया । यह एक कुशल प्रशासक के नेतृत्व का कमाल था । चतुर्वेदी जी के स्वर हमेशा गूजँते रहे । हमने ग्रीवेंस रजिस्टर की माँग तेज की , जो प्रत्येक लॉबी में होनी चाहिए ।  आज सभी लॉबी में ग्रीवेंस रजिस्टर उपलब्ध है । ऐसे सच्चे ईमानदार प्रशासको को नमन । 

Wednesday, October 23, 2013

ऐसा होता है अनुशासन

अनुशासन की बात आते ही शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती है । मुख्यतः  जो इसके आदी नहीं है । पर अपने आप में अनुशासन बहुत ही लाजबाब चीज है ।जिन्हें यह प्रिय है , उनके लिए देव तुल्य  । इसके परिणाम उस समय आश्चर्य की सीमा को छू लेती  है , जब दोनों ही इसके प्यारे/ अवलंबी हो । इसके परिणाम इसके सकारात्मक / नकारात्मक इस्तेमाल पर निर्भर करते है ।

 हां यह जरूर पथ में कांटे / दुश्मनों की संख्या बढ़ा देती है , परन्तु  धैर्यवान उच्चाई को छु लेते है और कायर परिणाम की गिनती करते हुए हथियार डाल देते है । कभी ऐसा भी होता होगा जब  अनुशासित व्यक्ति अपने आप को भी थोड़े समय के लिए सोंचने के लिए बाध्य हो जाए ।वास्तव में ऐसा  होता भी है । किन्तु यह सत्य है कि अनुशासन स्वयं को फायदा और इसका दुरुपयोग दुसरे को फायदा पहुंचता है । 

हम रेलवे के लोको पायलटो की कहानी बहुत करीब से  इससे  जुडी हुई  है । इस अनुशासन के सहारे गाड़िया अपने मंजिल तक सुरक्षित पहुंचती है । इसी लिए कहते है - अनुशासन हटी , दुर्घटना घटी । मेरा निजी अनुभव  है कि अनुशासन प्रिय लोग दिल और दिमाग से कठोर होते है । कभी - कभी ऐसे कदम उठाने पड़ते है , जिसे याद करके अकेले में आंसू निकल आते है । 

एक वाकया प्रस्तुत है । घटना उस समय की है जब मेरी पोस्टिंग यात्री लोको चालक के रूप में पकाला में हुई  थी । सांय काल का समय । katapadi  से तिरुपति पैसेंजर ट्रेन लेकर जाना था । ड्यूटी में आ गया था । katapadi का अगला स्टेशन रामापुरम  है । जो करीब १५ किलोमीटर दूर है । मुझे ट्रेन प्रस्थान की आथारिटी दी गयी । अथारिटी एब्नार्मल थी यानी पेपर लाइन क्लियर और सतर्कता आदेश के साथ , क्युकी katapadi स्टेशन मास्टर का संपर्क रामापुरम  मास्टर से नहीं हो पा रही  थी  । सतर्कता आदेश को पढ़ा , जो मुझे १५ किलोमीटर की गति से katapadi से रामापुरम जाने की अनुमति दे रहा था । कुछ समय के लिए अवाक् हो गया । 

katapadi दक्षिण और दक्षिण मध्य रेलवे की सीमा है । katapadi दक्षिण रेलवे के अंतर्गत पड़ता है । सीएमसी /वेल्लोर जाने के लिए यही उतरना पड़ता है ।मै सतर्कता आदेश के साथ स्टेशन मास्टर के ऑफिस  में गया और कहाकि - हमारे रेलवे में एब्नार्मल परिस्थिति में १५ किलोमीटर की सतर्कता आदेश नहीं दी जाती है । रामापुरम की दुरी १५ किलोमीटर से ज्यादा है । १५किलोमीटर की गति से रामापुरम पहुँचाने में बहुत समय लगेगा । मास्टर ने जबाब में कहा - मै कुछ नहीं कर सकता । हमारे यहाँ जो नियम है , उसी के मुताबिक सतर्कता आदेश दिया हूँ । अब मै निरुत्तर हो गया ।

 मै भी दृढ अनुशासन प्रिय । मैंने दृढ निश्चय कर ट्रेन को अनुशासित रूप से चालू कर दिया । रामापुरम तक १५ किलोमीटर की  गति से चल कर१५ मिनट के रास्ते को  ७५ मिनट में पूरा करते हुए पहुंचा । इधर हमारे मंडल में खतरे की घंटी बजने लगी । आखिर ट्रेन किधर है ? रामापुरम में मदुरै एक्सप्रेस एक घंटे से लाइन क्लियर के इन्तेजार में खड़ी थी । रामापुरम पहुंचते ही मास्टर ने लेट आने की जानकारी मांगी । मैंने पूरी कहानी कह दी । सभी आश्चर्य चकित रह गए । सभी ने मानी - ऐसा होता है अनुशासन । 

Friday, July 26, 2013

लघु कथा - धीमे चलिए , पुल कमजोर है

कौड़ी के मोल जमीन खरीदकर हीरे के दाम पर  ठेकेदारी बेंची जा रही थी । बड़े ओहदे वाले लाल -लाल हो रहे   थे . नीतीश को अभियंता हुए कुछ ही दिन हुए थे . एक समय था , जब उन्हें बाजार पैदल चलकर ही जाना पड़ता था . आज उसके पास सब कुछ है . दो कारे  , कई दुपहिये और निजी पसंद के बंगले में  कई नौकर चाकर . आस पडोश वाले  शान देख हैरान थे . 


कहते है - जब उसकी नौकरी लगी ,  सभी ने उसकी  उपरवार कमाई के बारे में जानने की कोशिश की थी . नीतीश बहुत इमानदार प्रवृति का था . यह कह कर बात टाल देता की सरकारी तनख्वाह काफी है . साथी कहते कि सरकारी तनख्वाह तो ईद का चाँद है यार . वह झेप जाता था . 


परिस्थितिया बदलती चली गयी . ईमानदारी बेईमानी में बदल गयी . नीतीश  इतना बदल गया कि उसे सरकारी तनख्वाह कम पड़ने लगे . अंग्रेजो द्वारा बनायीं हुयी पुल को तोड़ दिया गया , जिसके ऊपर अभी भी ७५ किलो मीटर की गति से बसे चलती थी . नए पुल का निर्माण किया गया . करोड़ो रुपये लगाये गए . धूमधाम से उदघाटन हुए थे और पुल के दोनों किनारों पर ,एक वर्ष के भीतर ही सूचना बोर्ड लग  गया था . जिस पर लिखा था - 

" धीमे चलिए , पुल कमजोर है "


Saturday, June 15, 2013

शिर्डी वाले साईं बाबा



दोनों एक समय  के जिगरी दोस्त थे । बहुत दिनों के बाद एक साथ और परिवार के साथ  मिले थे । वह भी महाराष्ट्र के मशहूर धार्मिक नगर शिर्डी में । दो दिनों का प्रोग्राम था । दोनों छुट्टी पर थे । एक एयर फ़ोर्स में कार्यरत शिव थे , तो दुसरे रेलवे के अधीन महादेव ।  नाम  अलग - अलग , पर अर्थ एक जैसे । यह भी एक इत्तेफाक था । पहले दिन नासिक दर्शन को  गए थे । थकावट में रात गुजरी । सुबह होते ही बाबा के दर्शन करने के बाद , शिर्डी  से प्रस्थान की व्यवस्था हो चुकी थी । 

दुसरे दिन वही हुआ , जो प्रोग्रमित था ।  दोनों दोस्त दोपहर के भोजन के बाद भक्ति निवास में लौट आयें । यही दो कमरे बुक हुए  थे । दोनों  दो बजे रेलवे स्टेशन के लिए रवाना होने वाले थे । शिव की ट्रेन नासिक से थी और महादेव की कोपर गाँव से । अतः शिव ने एक कार को भक्ति निवास में ही बुक कर लिया । कोपर गाँव जाने के लिए कोई साधन भक्ति निवास में उपलब्ध नहीं थे । साईं बाबा के मंदिर के सामने ही कोपर गाँव के लिए साधन मिलते है । 

दोनों के जुदा होने का वक्त आ गया था । भक्ति निवास में शिव अपने परिवार के साथ कार में जा बैठा । महादेव और उनके परिवार वालो ने विदाई हेतु अपने हाथ को हवा में लहराए । तभी महादेव के दिमाग में  एक तरकीब जगी , क्यों न हम सभी  इसी कार में साईं बाबा के मंदिर तक चल चले ? और दो मिनट  एक साथ रहेंगे । शिव ने भी ख़ुशी जाहिर की । महादेव भी परिवार के साथ उस कार में बैठ गया । कार पोर्टिको से बाहर सड़क की ओर चल दी । 

ओ ..ड्राईवर कार रोको ? किसी ने कार ड्राईवर को इशारा करते हुए कहा । ड्राईवर ने कार रोक दी । शायद वह ऑटो वाले थे । उसने ड्राईवर को  मराठी भाषा में कुछ हिदायत दी और न मानने की हालत में सौ रुपये जुरमाना देने को कहा । दस मिनट हो चुके थे । माजरा क्या है ?  जानने के लिए महादेव ने ड्राईवर से प्रश्न किया  । ये लोग दो परिवार को क्यों बैठाये हो -के मुद्दे पर प्रश्न खड़ा कर रहे है । एक ही परिवार को ले जाने के लिए कह रहे है । यह सून कर बड़ा ही ताज्जुब हुआ । ड्राईवर  और महादेव ने उन्हें समझने की लाख कोशिस की और उन्हें बताया गया कि एक परिवार मंदिर के पास उतर जाएगी । किन्तु उन लोगो के कान पर जू तक न रेंगी । उनकी बात न सुनी गयी , तो कार के चक्के की हवा निकाल देंगे । 

मामला गंभीर न हो जाए अतः महादेव  स्वयं परिवार सहित कार से निचे उतर गए और अफसोस के साथ दोस्त को अलबिदा किया । धर्म के स्थल पर यह घोर अन्याय है । महादेव मन ही मन बुद  बुदाये । ऑटो वाले ठीक नहीं कर रहे है । महादेव ने गुस्से के साथ पत्नी से कहा कि हम यहाँ से किसी ऑटो को किराये पर नहीं लेंगे और पैदल ही मंदिर तक जायेंगे । 

पहिये वाली सूट केस और बैग को सड़क पर खींचते हुए मंदिर की तरफ चल दिए , जहाँ से कोपरगाँव की   ऑटो / जीप  मिलती है । ऑटो वाले देखते रह गए । सहसा एक ऑटो आकर उनके समक्ष रूका , जिसे कोई बारह या पंद्रह वर्ष का लड़का चला  रहा था । लडके ने कहा - ऑटो में बैठिये मै मंदिर तक छोड़ देता हूँ । महादेव के मन में गुस्सा था । उसने सीधे इंकार कर दिया । किन्तु ऑटो वाला अपने   जिद्द पर अड़ा  रहा । अंततः महादेव ऑटो में बैठ गया ।



 दो मिनट में मंदिर स्थल आ गया । महादेव ऑटो से उतरने के बाद भाडा देने हेतु अपने पर्स खोलने लगे  । पर ऑटो वाला बिना देर किये , बिना भाडा लिए ही , वहां से  फुर्र हो  गया । जबकि भक्ति निवास से मंदिर तक का ऑटो चार्ज बीस रुपये था । महादेव आश्चर्य चकित थे । भला जिस पैसे के लिए उन ऑटो वालो ने हमे कार से उतरने के लिए विवश कर दिया था , वही बिन भाडा कैसे जा सकते है ? उन्हें समझते देर न लगी । साईं बाबा ने अपने भक्तो को कभी भी उदास नहीं किया है । सभी की बिदाई ख़ुशी से करते है । महादेव ने मन ही मन साईं बाबा को प्रणाम किया । 

ॐ साईं .....ॐ साईं ....ॐ साईं .....

( साथियों ....यह घटना सत्य पर आधारित है । परिवेश वही है , पर नाम बदल दिए गए है । दूर घर बैठे फोन के माध्यम से अपनो से बात चित हो जाती है । क्या यह सत्य नहीं की मंदिर रूपी फोन  के माध्यम  से हमारी आवाज भी ईश्वर तक पहुँच जाती है ?) 

Saturday, March 30, 2013

धोती , कुर्ता और टोपी |

ये भाई जरा देख के चलो 
दायें  भी नहीं  , बाएं भी ,
आगे भी नहीं ...  पीछे भी 
ऊपर भी नहीं  , निचे भी | यानी चारो तरफ से सतर्क |
 या 
चाँद न बदला , सूरज न बदला ...पर 
कितना बदल गया इन्सान ?

जी | सही  भी है | हर क्रिया के पीछे प्रतिक्रिया छिपी होती है | बहुत से जिव - जंतु  घास खा सकते है | घास खाने वाले अपने अंग से दूध विसर्जित कर सकते है | जो किसी दैविक शक्ति से कम नहीं | मानव वर्ग  सुन्दर से सुन्दर खाद्य सामग्री  खाकर भी नमकहराम हो जाते है | उनके द्वारा विसर्जित तत्व अनुपयोगी साबित होते  है | थोड़े समय के लिए सोंचे - दुनिया के सभी मानव श्रेणी   एक जैसी  होते तो क्या होता  ? क्या हम उंच - नीच , अल्प - ज्यादा  आदी के अंतर समझ  पाते   ? बड़ा ही कठिन होता | 

समानता में विखराव पण भी लाजमी है | यही वजह है कि हर व्यक्ति एक ही रंग  या एक ही आकार - प्रकार  व् पसंद  वाले नहीं होते | सभी के अंगो से खुशबु( यश ) नहीं निकलती | पर यह सही है कि मानव के कार्यकलाप , गतिविधिया , हाव  - भाव और आँखों की कलाएं ....उनकी पोल खोल देती है | या यूँ कहे कि सभी क्रियाएं  मानव के दर्पण है | जो कभी झूठ नहीं बोलते  | तिरछी आंखे , पलट -पलट  कर  देखना , अंगो को सिकोड़ लेना , गले लगा लेना ,सिर पर हाथ रखना वगैरह - वगैरह बहुत  से अनगिनत शव्द है | जो राज को  छुपाने नहीं देते  |

कहते है -हमारे पूर्वज असभ्य और अशिक्षित थे | जंगलो और पहाड़ो  में निवास करते थे  |  असभ्यता की जंजीरों में जकडे हुए , जीवन को जीते हुए ..सभ्यता के राह पर चल दिए | कहते है आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है | सब कुछ बदलने लगा , मानव की आवश्यकता के अनुरूप  | धीरे - धीरे बदलाव आये | आग के से लेकर वायुयान तक के अविष्कार हुए | ध्वनि तेज हुयी  | शर्म और हया की अनुभूति धागे और कपड़ो को विस्तार दिए होंगे  |  कपडे की अविष्कार  की वजह तन को ढकना और सुरक्षित रखना  ही था ,आज -कल की तरह  नुमयिस नहीं | प्राकृतिक आपदाएं और अलग - अलग प्राकृतिक आवोहवा ने सूक्ष्म , पतले और कोमल कपड़ो को  जन्म दिए  |

 मानवीय गुण   और व्यवहार में विकास |  रंगों के समागम और भेद  | रंगों से पहचान  बढ़ी होगी | गेरुवे , काले  , सफ़ेद  और रंगविरंगे परिधान -व्यक्ति के  व्यक्तित्व को उजागर करने के माध्यम बने  होगे | गेरुवे सन्यास , पुजारी ,काले विरोधक और सफ़ेद सादगी की पहचान बनी होगी | इस संसार को वक्त के थपेड़ो का शिकार होना पड़ा ,जो बदलाव के कारन बने   | फिर भी आज भारतीय संस्कृति में बहुत कुछ है सुरक्षित है , जो वक्त के थपेड़ो को झेल गया , उसमे किसी प्रकार की बदलाव नहीं आई  | 

भारतीय संस्कृति की धरोहर और  मिसाल दुनिया में कहीं  नहीं मिलती | मनुष्य के रहन - सहन और  पहनावे बदलते गए | आज हमारे सामने रंग - विरंगी दुनिया खड़ी है |  धोती ज्यो की त्यों हमारे सामने अडिग खड़ी है | जी हाँ ...धोती - कुरते और साडी दुनिया के किसी और छोर में विरले ही मिलते होंगे , अगर मिल भी गएँ , तो भारतीय मूल में ही होंगे | एक नारी के लिए उसके साडी की खुब सुरती नायब है |साडी में नारी की आभा खिल उठती है | वह भी सिर्फ  भारतीय नारी की  | साडी  नारी के  व्यक्तिव में निखार  और सादगी लाती  है | मजाल है जो कोई अंगुली उठा के देखे ? किसी विदेशी को साडी पहना कर देखे -आप हँसे न रह पाएंगे | भारतीय नारी की अस्मिता को ढंकती है --यह भारतीय सांस्कृतिक साडी | पर दुःख है की यह जिसके लिए निर्मित हुयी  थी वह भी समय के साथ बदल गयीं  | अपनी संस्कृति और धरोहर को छोड़ , हम पाश्चात्य के पीछे दौड़ने लगे  | जरूरत से ज्यादा नकलची बन बैठे  |

 किन्तु हमारी भारतीय  संस्कृति और यहाँ के  संस्कार इतने  कमजोर नहीं है , जो इतनी आसानी से बदल जाती  | आज भी देश के कई क्षेत्रो में धोती - कुरते वाले मिल जायेंगे | जो एक महान देश के महान संस्कृति की परिचायक है |  इसका सफ़ेद  रंग सदाचार , सदगुण के धोत्तक  है , अपवाद सवरूप कुछ होंगे जो इस पहचान को मिटटी में मिला रहे है , फिर भी हमारे भारतीय संस्कृति में   धोती की गरिमा अवमुल्य  है | शव्दकोश में धोती के पर्याय शव्द नहीं है | इतनी मजबूत है यह हमारी धोती | आज भी इस  वस्त्र को धारण करने वाले अधिक आदर के पात्र होते है | अतः हम कह सकते है कि हमारे  पहनावे , हमारे आकृति को बुलंदियों पर ले जाते है  | 

एक वाकया याद आ गया , जो प्रासंगिक है , प्रस्तुत है |  वर्ष १९८८ -बंगलूर में गया हुआ था | उस समय जींस - पेंट का बाजार जोर लिए हुए था | जवान था | कुछ वर्ष पूर्व ही शादी हुयी थी | दोस्तों ने जोर दी एक सेट ले लो | एक जींस और टी - शर्ट खरीद ली | उस वक्त करीब सौ रुपये लगे  | दुसरे दिन पत्नी के समक्ष पहन खड़ा हुआ |  घर में बड़े मिरर नहीं थे , जो अपनी तस्वीर देख लेता  | अपनी तस्वीर को दूसरों  के आँखों में देखने पड़ते थे |  जो प्राकृतिक ऐनक हुआ करते थे | पहले पत्नी की प्रमाणिकता जरूरी थी | पत्नी ने मुह विचका लिए | कुछ नहीं बोली |  संसय में झेप  गया | अरे भाग्यवान  कुछ तो बोलिए  ? क्या बात है ? पत्नी ने बहुत ही साधारण सी जबाब दी -" आप के  व्यक्तित्व में नहीं खिलती है | " . ओह ये बात है | जींस पेंट और टी-शर्ट निकाल फेंका | जी यह भी सत्य है कि आज - तक  उधर मुड़कर नहीं देखा | भाई को दे दी | वह भी पहनने से इंकार कर दिया | आज भी वह सेट माँ के कस्टडी में ,  माँ के प्यारे बॉक्स वाली अजायब घर  में बंद है |

ये मेरे अपने विचार है , आप के अपने - अपने विचार व् भाव अलग - अलग हो सकते है | सभी स्वतंत्र है | इस लेख / पोस्ट का मतलब  किसी के वैभव / पसंद को ठेस पहुँचाना नहीं है | हमारे संस्कार अटल है | हमारी संस्कृति अटल है | तभी तो धोती - कुरता के ऊपर इस टोपी की जादू नहीं  चली  | भारतीय संस्कृति हमारी धरोहर है | इसे बचाए रखना हमारा परम कर्तव्य है |


Saturday, March 16, 2013

इतना हम पर अहसान करो |





Ramesh Chandra Srivastava
+91 97524 17392
( श्री गिरिराज शर्मा जी ने मुझे कोटा / राजस्थान से इ-मेल द्वारा भेजी है | जो  लोको पायलटो की दुर्दशा को इंगित कर रही है | यह कविता व्यंग शैली में लिखी गयी है | एक तरह से रेलवे प्रशासन की पोल खोलती है |)

Monday, March 4, 2013

अंक की बिंदिया

कहते है -जो होनी है , वह जरूर होगी | जो हुआ , वह भी ठीक  था  | अथार्थ हर घटना के पीछे कुछ न कुछ कारण होते ही है | पछतावा ,मात्र संयोग रूपी घाव ही है | घटनाओं के अनुरूप सजग प्रहरी , कुछ न कुछ विश्लेषण निकाल  ही लेते है | जो मानव को उसके शिखर पर ले जाने के लिए पर्याप्त होती है | हमें इस संसार में    विभिन्न  परीक्षाओ से गुजरने पड़ते है ,उतीर्ण या अनुतीर्ण , हमारे कर्मो की देन है | 

मन की अभिलाषाएं -असीमित  है | इस असंतोष की  भंवर में जो भी फँस गया , उसे उबरने की आस कम ही होती है | संतोष ही परम धन है | मैंने  अपने  जीवन में सादा  विचार और सादा  रहन - सहन को अहमियत दी है | सदैव पैसे अमूल्य ही रहे है | यही वजह था की उच्च शिक्षा  के वावजूद भी १९८७ में फायर मेन के तौर पर रेलवे की नौकरी स्वीकार की थी | वह एक अपनी  इच्छा थी | उस समय की ट्रेनों को देख मन में ललक होती थी , काश मै भी ड्राईवर होता | किन्तु वास्तविकता से दूर | मुझे ये पता नहीं था कि फायर मेन को करने क्या है ? ड्राईवर का जीवन कितना दूभर है ?

इस नौकरी में आने के बाद , इसकी जानकारी मिली | स्टीम इंजन के साथ लगना पड़ा था | कठिन  कार्य | श्रम करने पड़ते थे | इंजन के अन्दर कोयले के टुकडे को डालना , वह भी बारीक़ करके | कभी - कभी मन में आते थे कि नाहक प्रधानाध्यापक की नौकरी छोड़ी | चलो वापस लौट चले ? पर  दिल की  ख्वायिस और  इच्छा के आगे  घुटने टेकने पड़े थे | मनुष्य उस समय बहुत ही दुविधा  का शिकार हो जाता  है , जब उसके सामने  बहुत सी सुविधाए और अवसर के  मार्ग उपलब्ध हो  |    

मेरे लिए गुंतकल एक नया स्थान था |  मैंने अपने जीवन में इस जगह के नाम को  कभी नहीं सुना था | भारतीय मानचित्र के माध्यम से  -इस जगह को खोज निकाला  था | वह भी दक्षिण भारत | एक नए स्थान में अपने को स्थापित करने की उमंग और आनंद ही कुछ और होते  है | बिलकुल नए घर को बसाना , अपनी दुनिया और प्यार को संवारना  |  बिलकुल एक नयी अनुभव | एक वर्ष के बाद ही पत्नी  को साथ रख लिया था | बिलकुल हम और सिर्फ हम दोनों , इस नयी जगह और  नयी दुनिया के परिंदे | कोई संतान नहीं | नए जीवन की शुरुआत और अपने ढंग से सवारने में मस्त थे | उस समय की  कोमल और अधूरी यादें मन को दर्द और  प्रेरणा मयी जीने की राह प्रदान करती   है | 

उस दिन की काली कोल सी  , काली भयावह रातें  कौन भूल सकता है | जो ड्राईवर या लोको पायलटो के जीवन का एक अंग है | भयावह रातें , असामयिक परिस्थितिया , अनायास  दर्द ही तो उत्पन्न  कराती है | परिजनों से दूर , सामाजिक कार्यो से विरक्तता , वस् एक ही दृष्टि सतत आगे सुरक्षित चलते रहना है और चलते रहने के लिए सदैव तैयार बने रहो  | हजारो के जीवन की लगाम इन प्यारी हाथो में बंधी होती है |

 उस दिन मै एक पैसेंजर ट्रेन ( स्टीम इंजन से चलने वाली  ) में कार्य करते हुए , हुबली से गुंतकल को आ रहा था | संचार व्यवस्था सिमित थी  | संचार को गुप्त रखना भी एक मान्यता थी | रात  के करीब नौ बजे होंगे ,गुंतकल पहुँच चुके थे | शेड में साईन ऑफ करने के लिए जा रहा था | सामने पडोसी महम्मद इस्माईल जी ( जो ड्राईवर ट्रेंनिंग स्कूल के इंस्ट्रक्टर भी थे ) को देख अभिवादन किया | साईनऑफ हो गया हो तो हाथ मुह धो लें - उन्होंने मुझसे कहा  | यह सुन दिल की धड़कन बढ़ गयी | आखिर ये ऐसा क्यूँ कह रहे है ? आखिर इस वक़्त इनके यहाँ आने की वजह क्या है ? मन में तरह - तरह की शंकाएं हिलोरे  लेने लगी | मैंने उनसे पूछ - अंकल क्या बात है ? उन्होंने कहा - कोई बात नहीं है , आप की पत्नी की  तवियत ठीक नहीं है | वह अस्पताल में भरती है |

अब हाथ - मुहं कौन धोये | तुरंत अस्पताल को चल दिए | अस्पताल बीस मीटर की दुरी पर ही था | महिला वार्ड में पत्नी -बिस्तर पर लेटे हुए थी | पास में ही महम्मद इस्माइल जी की पत्नी खड़ी थी | उनके चेहरे पर भी दुःख के निशान नजर आ रहे थे  | पत्नी मुझे देख मुस्कुरायी और धीमे से हंसी | जैसे कह रही हो , मेरी ही गलती है | मै दृश्य को समझ चूका था | एक पूर्ण  औरत की ख़ुशी और उसके अंक  की पहली बिंदी गिर चुकी थी | आँखों में पानी भर आयें | मेरे आँखों में पानी देख पत्नी के हौसले भी ढीले पड़ गएँ , उसके भी  आँखों में आंसू भर आयें  |  दिल के गम को बुझाने के लिए , आंसू की लडिया लगनी वाजिब थी | महम्मद इस्माईल की पत्नी दोनों को संबोधित कर बोलीं - आप लोग दुखी मत होवो , घबड़ाओ मत , अभी जीवन बहुत बाकी है | 

एक दूर अनजान देश में , जहाँ अपने करीब नहीं थे , परायों ने अपनत्व की वारिस की | हम अलग हो सकते है , पर अगर दिल में थोड़ी भी  मानवता है  , तो हमें नजदीक खीच लाती  है | उस समय की असमंजस भरी ठहराव , दृढ संकल्प और कुछ कर सकने की दिली तमन्ना , आज उपुक्त परिणाम उगल रही  है | आज हम दो और हमारे दो है | फायर मेन से उठकर सर्वोच शिखर पर पहुँच राजधानी ट्रेन में कार्य करने की इच्छा पूर्ण हुयी है | आज अनुशासन भरी जिंदगी , एक उच्च कोटि के अभियंता से ऊपर  सैलरी  और जहाँ - चाह  वही राह के मोड़ पर खड़ी जिंदगी , से ज्यादा जीवन में और कुछ क्या चाहिए  ?

 अपने लगन और अनुशासन के बल पर जीवन जीना और इसके अनुभव की खुशबू ही  अनमोल है | आयें हम सब मिल कर , अनुशासन के मार्ग पर चलते हुए , एक नए भारत की सृजन करें | जहाँ भ्रष्टाचार का नामोनिशान न हो | 

Saturday, January 26, 2013

कर भला हो भला |

अरे कलुआ ( बदले हुए नाम ) ...कहाँ है रे |  तू बाहर  आ  | क्या कर दिया रे | आज मेरे पुत्र को क्या हो गया  ? बहुत कुछ बडबडाते  हुए वह  औरत आगे बढ़ रही थी | रात्रि  का पहर  | चारो तरफ अँधेरा ही अँधेरा | गाँव का मामला | बिजली की आस नहीं | झींगुरो की आवाज गूंज रही थी | कुत्ते भूकने लगे थे | आचानक वह महिला चिल्लाते हुए कलुआ के दरवाजे पर आ धमकी  | उसके पीछे लोगो का झुण्ड   किसी के हाथ में लाठी  , तो किसी के हाथ में डंडे | टार्च की रोशनी फैल रही थी | शोर गुल तेज हो गए | आस - पास के लोग भी अपने घरो से बाहर  निकल आये | किसी को माजरा  समझ में नहीं आ रहा था, आखिर बात  क्या है ?

उस गरीब के झोपड़ी के सामने , इन दबंगों के भीड़ को देख सभी समझ गए की जरुर कुछ लफडा है | लगता था जैसे भीड़ कलुआ को चिर कर खा जाने के लिए तत्पर हो चली थी  | उस झोपड़ी के अन्दर तेल के मद्धिम  दीप की  रोशनी में कलुआ की बीबी चूल्हे पर कुछ पका रही थी | दो छोटे बच्चे पास में ही चिपके हुए थे | कलुआ पास में बैठा ,बीडी पिने में मशगुल था  | घर के बाहर  उसके सास और ससुर  चौकी पर लेटे हुए थे | इतनी हुजूम ,  देखते ही उनके अन्दर डर समां गयी | अँधेरे में भी उन्हें समझते देर न लगी की कौन उनके घर के पास खड़ा है और  चिल्लाये जा रहा है |

' बबुआ की माँ जी का  बात है ?'-कलुआ के बाप के मुह से सहमी सी  आवाज निकली | पहले बता कलुआ कहा है ? भीड़ से किसी ने कहा | तब तक कलुआ झोपड़ी के अन्दर से धीरे - धीरे  बाहर निकला | उसके बाहर  आते ही वह बुड्ढी ( जो  संपन्न / दबंग घर की महिला थी ) कलुआ के पैर पर गिर पड़ी | कलुआ मेरे बेटे को बचा लो | मेरा बेटा मर जायेगा | मेरा बेटा मर जायेगा | वह एक साँस में बोले जा रही थी  ,  रुकने का नाम नहीं ले रही थी और कहते - कहते बिलख कर रोने लगी | सभी हतप्रभ थे , किसी को समझ में नहीं आया | आखिर मामला क्या है ?

चाची जी रौआ उठी | ऐसन का बात हो गईल , जो इतना परेशान बानी | उसने  भोजपुरी लहजे में   ही कहा  और अपने पैर को दूर खिंच लिया |  वृद्धा उठ चौकी के एक कोने में बैठ गयी  और अपनी बात दुहराते हुए फिर बोल पड़ी  - बेटा  कलुआ , मेरे बेटे से गलती हो गयी | अगर उसने कुछ गलत किये हो तो , उसके लिए मै माफी मांगती हूँ , माफ कर दो | तेरे सभी पैसे मै देने  के लिए तैयार हूँ | कुछ कर धर ( मतलब कोई टोटके ) दिया हो तो उसे वापस ले लो | तू भी मेरे बेटे सामान है | कलुआ मेरा बेटा मर जायेगा | और बहुत कुछ ....

कलुआ हक्का बक्का सा गुमसुम खड़ा रहा  | उसे समझ में नहीं आ रहा था की मामला क्या है ? असमंजस सी स्थिति | आस - पास वाले भी कुछ न समझ पाए |

गाँव के हाट बाजार | जो सप्ताह में दो दिन , वह भी संध्या समय ही लगते है - रविवार और बुधवार | उस दिन रविवार थे | बाजार खाचा - खच भर गया था | इस हाट बाजार में दबंगों की दबंगई जोरो पर रहती है | अतः सभी व्यापारी , इस बाजार में आने से डरते है | कुछ परिस्थिति से सामंजस्य बना लेते है | कलिया (मांस ) के दूकान एक या दो लगती है | मछुआरे एक तरफ चार या पांच की संख्या में आते है | उसमे कलुआ भी एक था | वह अपने टोकरी में मछली लेकर बिक्री कर रहा था | लेने वालो के हुजूम लगे हुए थे | कोई भाव पूछ रहा था तो कोई मोल भाव में व्यस्त | तभी अमर सिंह ( बदले हुए नाम )  दबंगों का झुण्ड आ डाटा | उन्होंने कलुआ से  मछली का रेट पूछा  | बीस रूपए किलो साहब | अबे बीस रुपये मछली कहाँ है रे ?  दस रूपए में दे दो | नहीं साहब घाटा  हो जायेगा | कलुआ गिडगिडाने लगा | दबंगों ने जबरन दो किलो मछली तौल  लिए और जाते - जाते पैसे भी नहीं दिए | कलुआ मुह देखते रह गया |

घर की औरतो ने  मछली  बहुत मसालेदार  बनायीं | घर के सभी छोटे - बड़े .. बारी - बारी से भोजन ग्रहण कर लिए थे | जब अमर सिंह  भोजन करने लगा  ( जिसने कलुआ से जबरन मछली छीन कर लायी थी ) अचानक उसके गले में मछली के कांट फँस गए | बहुत चेष्टा की ,सादे भात खाए  पर  निकलना मुश्किल | घर वाले गाँव के स्वास्थ्य केंद्र में ले गए | डॉक्टर ने जबाब दे दिया |  डॉक्टर ने कहा - शहर के अस्पताल में ले जाएँ | शहर के अस्पताल ने वनारस को रेफर कर दिया | घटना क्रम से प्रभावित हो किसी साथी  ने कह दी की मुफ्त की मछली का नतीजा है | कलुआ ने कोई जादू - टोना की होगी | परिणाम सामने है सभी घर वाले क्षमा - याचना वस् कलुआ के घर दुहाई के लिए जुट गए थे  | कलुआ की अनुनय - विनय हो रही थी |

 संसार में जीवो की उत्पति ही कुछ न कुछ अर्थ रखती  है | मनुष्य सबसे चालक और उत्कृष्ट माना जाता है | इसके कार्यकलापो से  हवा के अन्दर जो स्पंदन उठती  है , वह आस - पास की सभी चीजो को प्रभावित करती है | आग के पास बैठने से गर्मी या सर्दी नही | आम से आम या इमली नही | परिणाम हमारे कर्मो की देन है ,फिर आंसू किस लिए ? इसीलिए कहते है -- कर  भला - हो भला | 

(  यह सत्य घटना मेरे गाँव की | परिणाम बहुत ही दर्दनाक रहें | तीन महीने बाद अमर सिंह की मृत्यु हो गयी | आज गाँव में यह घटना एक उदहारण बन गयी है | जैसी करनी वैसी भरनी | मछुआरो ने गाँव का बहिष्कार कर दिया था |  )

Monday, October 29, 2012

फर्क तो है ।


जिस तरह दुनिया में कंटीले या बेकार के वृक्ष  कहीं भी स्वतः उग जाते है तथा सदुपयोगी  वृक्ष सभी    जगह नहीं मिलतें  , वैसे ही संसार में बुरे प्रवृति के व्यक्ति सभी जगह भरे पड़े है । अच्छे लोगो की पहचान और उपस्थिति का आभास बड़ा ही कठिन है । अच्छे लोगो की आवश्यकता उनके अनुपस्थिति के समय महसूस होती  है । संसार में बुरे लोग इस तरह से छाये है कि उनके आगे नियम - क़ानून सब फीके पड़  जाते है । रावण  हो या महिसाशुर , कंश  या दुर्योधन सभी  अपने युग के कालिमा / कलंक थे । अंततः विजय उजाले की ही होती है । सच्चे व्यक्ति में त्याग की भावना चरम पर होती है  , यही वह शक्ति है , जो उसे स्वार्थ से दूर ले जाती है , और एक दिन उसके अन्दर ईश्वरीय  शक्ति का विकास हो जाता है । वह इश्वर स्वरुप  बन जाता है । उसके वाणी में ओज , मुख पर आकर्षण और कार्य में शक्ति भर आती है ।

हम इस क्षेत्र में कहाँ तक आगे है , खुद ही महसूस  कर सकते है । मनुष्य जाती ही एक ऐसा प्राणी है , जो कुछ सोंच और महसूस कर सकता है । अन्यथा पत्थर .......और उसमे कोई भिन्नता नहीं । भारतीय संघ में प्रशासन के कई रूप है । कई नियम - कानून । सभी नियम कानून सर्वजन हिताय से प्रेरित है । फिर भी इसके अनुचित उपयोग और परिणाम निकल आते है । आखिर क्यों ?

यह  व्यक्ति विशेष के व्यवहार  और  इमानदारी पर निर्भर करता है । उसके सकारात्मक सोंच पर निर्भर करता है । अब देखिये ना ......हमारे रेलवे में एक प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति चाहे जो भी हो ....वह निरिक्षण के दौरान लोको के अन्दर ....लोको पायलट के सिट पर नहीं बैठ सकता । इससे लोको पायलटो के कार्यनिष्पादन  , सिग्नल को देखने और बहुत सी चीजो में व्यवधान पड़ती है , जो ट्रेन को सुरक्षित परिचालन के लिए सही नहीं है । अब आप ही परख लें ---कौन कैसा है ?

1)  मै  एक दिन 12163 दादर - चेन्नई सुपर लेकर गुंतकल से रेनिगुंता जा रहा था । गुंतकल में ही मंडल सिगनल अधिकारी लोको के अन्दर तशरीफ लायें और आते ही सहायक के सिट पर  ऐसे बैठ गए , जैसे जल्दी ग्रहण ( बैठो  ) करो नहीं तो दूसरा कोई बैठ जायेगा । तादीपत्री   में उतर गएँ ।

2) इसी ट्रेन में कडपा  से एक और अधिकारी लोको में आयें .....आते ही अपना परिचय दिए ...मै सहायक  निर्माण अधिकारी / कडपा हूँ और राजम पेटा  तक आ रहा हूँ । लोको में खड़ा रहे  । सहायक के सिट पर नहीं बैठे । सहायक ने शिष्ठाचार बस  बैठने का आग्रह भी किया ।

3) एक बार मै सिकन्दराबाद से 12430 राजधानी एक्सप्रेस ( हजरत निजामुद्दीन से बंगलुरु  ) आ रहा था । ट्रेन के आने की इंतजार में प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ा था । तभी एक व्यक्ति मेरे पास आया और अपना परिचय चीफ कमर्शियल  मैनेजर के निजी सचिव के रूप में करते हुए कहा - कि साहब आपके लोको में फूट प्लेट इन्स्पेक्सन  के लिए आ रहे है । मैंने कहा मोस्ट वेलकम सर । ट्रेन आई । साहब आयें । उन्होंने भी आते ही मुझसे हाथ मिलायी , परिचय का आदान - प्रदान हुयी । लोको के अन्दर आये ।

दक्षिण मध्य रेलवे का मुख्य कमर्शियल मैनेजर ....यह स्वाभाविक   था  कि  हम उनका भरपूर   स्वागत करें  । ट्रेन  चल दी । हमने उनसे सहायक के सिट पर बैठने के लिए आग्रह की , पर वे ऐसा करने से साफ़ इंकार कर  गएँ  और प्यार भरे शव्दों में कहा कि आप लोग मेरे बारे में चिंता न करे ....आप लोगो का कार्य महत्वपूर्ण है । अंततः वे 304 किलो मीटर तक लोको में -खड़े  खड़े  यात्रा / निरिक्षण कियें  और रायचूर में जाते समय दो टूक बधाई देना भी न भूलें ।

जी हाँ --अब आप क्या कहेंगे ?   एक ही कानून ....एक ही संस्था ...किन्तु कार्यप्रणाली ...बदल जाती है । इसके भागीदार हम और आप ही तो है । आखिर फर्क तो है ।

Monday, September 24, 2012

जिंदगी के सफ़र

यात्रा में  मानवी सहकारिता , संयोग , मिलन और अपनापन का एक अनूठा समिश्रण चार चाँद लगा देता है । कभी - कभी यह दुखदायी भी बन जाता है । समयाभाव की वजह मुझे ब्लॉग से दुरी बनाने के लिए मजबूर किये बैठी है । संक्षिप्त में पोस्ट लिखना मेरी मजबूरी बनते जा रही है । एक समाचार मुझे उद्वेलित कर गयी ।

परसों की बात है । जनरल डिब्बे में दो महिलाये बातों - बातों में  ..इस कदर ---- सिट के लिए झगड़ बैठी की एक ने दुसरे की गले को ऐसे दबा दिया , की उसके प्राण पखेरू उड़ गए । माँ के शारीर को पकड़ छोटे बच्चे का बिलखना ....सभी को बिचलित कर दिया । मामला गंभीर था . गाडी रुक गयी  । पुलिस  आई उस महिला को पकड़ कर ले गयी । पत्रकारों  का झुण्ड उमड़ पड़ा । कल समाचार जरूर छपी होगी ।

यात्रा में सावधानी , बरतनी जरूरी है। 

Thursday, June 28, 2012

सिल्वर जुबिली समारोह -1987 की मार्मिक यादें

जीवन में  संघर्ष और उल्लास का अंत नहीं है ! जो जीता वही  सिकंदर ! भावनाए उमड़ती है , स्वप्न आते है , परछाईया साथ देती है किन्तु स्पंदन के साथ ही परिवर्तित हो जाती है ! हवा स्पर्स करती हुयी आगे बढ़ जाती है ! पीछे मुड़  कर नहीं देखती ! वस् यादें रह जाती है ! संजोये रखने के लिए ! कभी - कभी चेहरे  की झुर्रिया देख मन व्याकुल हो जाता है !


25 जून और 26 जून 2012 , मेरे लिए बहुत कुछ लेकर आया ! 25 जून को लोको पायलटो और उनकी परिवार के सदस्यों ने मंडल रेल प्रबंधक कार्यालय के समक्ष धरना दिया ! जो मूल भुत सुबिधाओ और अनुशासन की मांग पर केन्द्रित था ! वही यह दिन मेरे कैरियर के पच्चीसवे वर्ष का अंतिम दिन था ! एक  लम्बी अंतराल और देखते - देखते दिन  निकल गए  ! सोंचने पर मजबूर होना पड़ा , क्या खोया और क्या पाया !

मेरे बैच  के दोस्तों ने सिल्वर जुबिली मनाने का प्रस्ताव रख दिए ! फिर क्या था -26 जून 2012 को इस प्रोग्राम को अंजाम मिल गया ! दो -तीन साथियो  की कड़ी मेहनत के बाद रेलवे इंस्टिट्यूट में इस प्रोग्राम को सफलता पूर्वक आयोजित किया गया ! यह प्रोग्राम सुबह आठ बजे से शुरू होकर रात्रि के साढ़े दस बजे समाप्त हुआ !

हमसभी 1987 में अपरेंटिस फायर मेन " ये " ग्रेड में ज्वाइन किये थे ! उस समय स्टीम  लोको चलती थी ! नए - नए थे ! सभी के अन्दर उल्लास भरे हुए थे ! जिधर छुओ उधर कालिख , तेल ! दो वर्ष ट्रेंनिंग करनी पड़ी थी ! इसी दौरान सभी स्टीम लोको धीरे - धीरे गायब हो गए ! पहले तो ऐसा लगा की नौकरी छोड़ कर भाग जाए , किन्तु ड्राईवर बनने की तमन्ना दिल में उछाले ले रही थी ! प्रायः सभी साथी  पदोन्नति करते हुए लोको इंस्पेक्टर / क्रू कंट्रोलर /ऑफिस मैनेजर /लोको पायलट ( मेल / एक्सप्रेस) वगैरह तक कार्यरत  है ! किसी ने भी ऑफिसर बनने की इच्छा नहीं जताई और न बने  ! उसमे मै  भी एक हूँ !

सभी को समय रहते ही निमंत्रित कर दिया गया था ! हम कुल 34 थे !  20 साथी ही अपने परिवार के साथ शामिल हुयें ! दो साथी इस दुनिया में नहीं रहे ! उनके याद में, श्रधांजलि हेतु ,  दो मिनट का मौन  रखा गया ! सुबह की शुरुआत   दक्षिण भारतीय इडली , दोसे , वडा  चटनी और  साम्भर के नास्ते  से शुरू हुआ ! दोपहर का मेनू बड़ा ही स्वादिस्ट - चिकन , मटन,  रोटी  हलीम , ब्रिंजल करी , रायता , ice  cream ,सलाद तले  हुए  चावल ,  वेज कुरमा  वगैरह - वगैरह ! सभी की हालत देखते बनती थी  , क्या खाएं न खाए की चिंता !सब कुछ स्वादिस्ट ! रात का भोजन बिलकुल शाकाहारी ! रोटी चावल दाल रसम साम्भर पापड़ दही केला  आदी ! मनोरंजन के लिए आर्केस्ट्रा का इंतजाम ! बच्चे और कई साथियों ने नृत्य कर इसके लुत्फ लिए !छोटा सा शहर , किन्तु मेट्रोपोलिटन के इंतजाम , किसी को किसी तरह की कमी महसूस नहीं हुयी !


 जो भी हो यह सिल्वर जुबिली एक याद ले कर आई और यादगार बन कर चली गयी ! 25 को पच्चीसवे का अंत और 26 को छब्बीसवे की शुरुआत अपने आप में एक अर्थ छोड़ चली गयी  !सभी परिवार एक दुसरे से मिलकर अत्यंत खुश थे !सभी साथियों ने अपने - अपने अनुभव बाँटें ! जो सुन और देख परिवार के सदस्य अचंभित थे !बच्चो को  कभी भी स्टीम लोको देखने को नहीं  मिली थी , वे मंच पर लगे फ्लक्स के तस्वीर से संतुष्ट लग रहे थे ! कईयों ने इसके कार्य पद्धति पर कई प्रश्न पूछ डाले !स्टीम लोको में कार्य करना कठिन , किन्तु बहुत ही स्वास्थ्य बर्धक !
परिवार और छोटे - बड़े बच्चो को देख ऐसा लगा  जैसे  - इंजन के पीछे रंग - विरंगे डब्बे ! एक  और अनेक में परिवर्तित ! सभी इस   अनोखी समागम को देख दंग ! हमारे पीछे इतनी बड़ी संख्या ! कल क्या होगा ?अब वह दिन दूर नहीं जब हमें बच्चो के शादी - व्याह के मौके पर शरीक होना होगा ! इस समूह में लड़कियों की संख्या ज्यादा और लड़को की कम थी !इस समारोह के मुख्य अतिथि सीनियर मंडल यांत्रिक इंजिनियर और उनकी टीम थी ! उन्होंने अपने अविभाषण  में सभी की मंगल की कामनाये करते हुए  बधाई दी ! संध्या के समय  सहायक  मंडल यांत्रिक  इंजिनियर के कर कमलो से सभी साथियों को मोमेंटो प्रदान की गयी ! जो हमेशा इस सुनहरे दिन की याद दिलाता रहेगा !  इस तरह से रेलवे के अंतिम और आखिरी   स्टीम लोको के साक्षियों की सिल्वर जुबिली 26 जून 2012 को हर्षौल्लास के साथ संपन्न हुआ !

Wednesday, June 13, 2012

मानवता की पहचान बड़ी मुश्किल है !

वह कभी बेंच पर बैठता , तो कभी उठ जाता  ! बिलकुल बेचैन ! घबराहट में चहलकदमी , आगंतुक सा राह  को निहारते हुए ! समझ में नहीं  आ रहा था की क्या करे ? माथे पर सिकन भरी ! होठ सुखते जारहे थे ! हर आने वाले से यही पूछता की डॉक्टर साहब कब आ रहे है ? कोई उन्हें जल्दी बुलाओ ना ? नर्सो से बार - बार , एक ही सवाल ..डॉक्टर साहब आ रहे है या नहीं ? नर्सो के सकारात्मक उत्तर भी नकारात्मक सा लग रहे थे ! सहसा एक व्यक्ति का आगमन होते दिखा  ! ड्यूटी पर उपस्थित नर्स ने  इशारे से कहा - वो .. डॉक्टर साहब आ रहे है !

वह व्यक्ति आपे से बाहर ! उसे समझ में नहीं आया की वह किससे तर्क करने जा रहा है और बोल बैठा -" आप ऐसे ही लेट  आते है क्या ? आप को जरा भी सेन्स नहीं है ! मेरा बच्चा सर्जरी के लिए कब से आपरेसन  थियेटर में पड़ा हुआ है ! वह खतरे से खेल रहा है  और आप है जो ..थोड़ी भी समझ नहीं है ..." वह व्यक्ति एक साँस में बोले जा रहा था !

डॉक्टर  मुस्कुराया और बोला --" मै  आप का क्षमा प्रार्थी हूँ ! मै  अस्पताल में नहीं था ! मुझे जैसे ही नर्स की कॉल मिली , भागे - दौड़े  आ रहा हूँ !"  - डॉक्टर अभी अपने सर्जरी  लिबास में भी नहीं था ! दिखने से लग रहा था की वह पहनावे की फिक्र किये बिना ही आ गया था !

" चुप रहो ,,आप के बेटे  के साथ  ऐसा होता , तो खामोश बैठते क्या ? आप का बेटा इस हालत में मर जाए तो क्या करते ?" उस  बच्चे का पिता  गुस्साए हुए भाव से पूछ बैठा ! डॉक्टर ने मायूस स्वर में कहा - " मेरा जो धर्म है . करूँगा ! हम सब मिट्टी  के बने है और एक दिन मिट्टी  में मिल जायेंगे ! भगवान पर भरोसा रखे .सब ठीक  हो जायेगा ! जाईये  बेटे के  लिए भगवान से प्रार्थना  करें ! " इतना कह और देर न करते हुए .. डॉक्टर आपरेसन थियेटर के अन्दर चला गया !

करीब एक घंटे से ज्यादा ..सर्जरी की प्रक्रिया चली ! डॉक्टर  थियेटर से  तेजी से बाहर  निकला और तेज कदमो से  आगे जाते हुए बच्चे के पिता की ओर( जो बेंच पर घबडाये हुए बैठा था ) मुखातिब हो कहा - " life saved  भगवान का शुक्र है ! अगर कोई बात हो तो नर्स से पूछ लेना !" और तेज कदमो में आँखों से ओझल हो गया !

" वाह .. कितना गुस्से में है ...एक क्षण रूक कर मेरे बेटे के बारे में नहीं बता सकता  क्या ? "- वह व्यक्ति फुसफुसाया ! तब तक नर्स उसके सामने आ चुकी थी और वह  उसके शव्दों को सुन ली थी ! वह व्यक्ति नर्स की तरफ देखा ! नर्स की आँखों में आंसू की लडिया बहे जा रही थी ! व्यक्ति को कुछ समझ में नहीं आया ! वह घबडाये  सा उसे देखने लगा ! नर्स ने कहा -"  डॉक्टर के  बेटा  का शव ..श्मसान घाट में उनका इंतजार कर रहा है ! कल सड़क दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गयी थी ! जिस समय उन्हें कॉल मिली उस समय वे उसके अंतिम संस्कार में   व्यस्त थे  ! किन्तु संस्कार की प्रक्रिया बिच में ही छोड़ सर्जरी करने के लिए आ गए !"

मानवता की पहचान बड़ी मुश्किल  है !

( सौजन्य - डॉक्टर श्री मुकुंद सिंह / शिर्डी ..जो सत्य घटना पर आधारित है ! अगर कोई सुधि पाठक उनसे बात करना चाहता है , तो मै  उनका मोबाईल संख्या दे सकता हूँ !)

Sunday, June 3, 2012

दिल के अरमां ..आंसुओ में बह गएँ

दिल के अरमां ..आंसुओ में बह गएँ ! मनुष्य दुनिया में सबसे सर्वोत्तम प्राणी के श्रेणी में गिना जाता है !विचार , रहन - सहन ,पराक्रम और बुद्धि में अंतर स्वाभाविक है ! यही मनुष्य को अलग - अलग चोटियों पर ले जाते है ! कुछ गिर जाते है , कुछ सम्हल जाते है  तो कुछ ऐसी स्थान प्राप्त कर लेते है , जहाँ सबके पहुँचने की  आस कम ही होती है !

आखिर ये सब कैसे और क्यूँ होता है ? 

दुनिया में आने और जाने के रास्ते तो एक जैसा ही है ! बीच  में इतने अंतर क्यूँ ? क्या ये सब हमारे मुट्ठी में बंद तकदीर का कमाल है या कोई आप रूपी  शक्ति कंट्रोल करती है ! जो भी हो मै तो तक़दीर और अंगुलियों के सतरंगी ध्वनि  पर ही विश्वास करता हूँ ! हम अपने अंगुलियों के कर्म रूपी शक्ति से तक़दीर रूपी घरौंदे का निर्माण करते है ! सभी के तकदीर सुनिश्चित है ! इसमे फेर बदल हमारे कर्मो पर निर्भर है ! अगर ऐसा नहीं होता तो आकाश में फेंकी हुई पत्थर इधर - उधर न गिर , हमारे निशान पर ही गिरते !




कुछ मेरे अपने अनुभव है , जो मै यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ ! मैंने अपने २६ वर्षो के सर्विस  जीवन में जो देखा , वह कुछ सोंचने पर बाध्य कर देते है ! मेरे श्रेणी ( लोको चालक  ) में मैंने देखा है की बहुत से लोको चालक कई प्रकार के कठिनाईयों से गुजरे है !  जैसे -
(1) दोस्त की बहाली सिकंदराबाद  हुई, वह स्वतः आवेदन कर सोलापुर गया और शादी के एक दिन पूर्व स्कूटर दुर्घटना में चल बसा ! (2) दोस्त की बहाली गुंतकल हुयी और स्वतः आवेदन पर हुबली गया और हार्ट अटैक का शिकार हो चल बसा ! (3) एक घटना दो कर्मचारियों के अदलाबदली पर हुयी , एक रिलीफ लेकर दुसरे कार्यालय में ज्वाइन किया , दुसरे ने आत्म हत्या कर ली !(4)  एक लोको पायलट की बहाली विजयवाडा में हुई और स्वतः आवेदन पर चेन्नई गया ..ड्यूटी के वक्त दो ट्रेन की टक्कर हुई और वह सजा भुगत रहा है !(5) एक लोको पायलट स्वतः आवेदन पर रेनिगुनता गया और माल गाडी के दुर्घटना में उसके दोनों पैर कट गए ! (6) एक लोको पायलट रायचूर से  स्वतः आवेदन पर पकाला होते हुए रेनिगुनता गया , कार्य करते वक्त किसी ने लोको के ऊपर पत्थर मारी और उसके आँख ख़राब ! आज वह लोको पायलट के  जॉब से मुक्त है !(7)  एक लोको पायलट काटपादी  गया और ट्रेन चलते वक्त उसे दुर्घटना के शिकार होना पड़ा !  


 अभी बहुत से उदहारण मेरे पास  है ! जो ये सिद्ध करते है कि जो कार्य  स्वतः होते है , हमारे तकदीर है , उन्हें छेड़ना हमें कमजोर कर देती है ! दाने - दाने पर लिखा है खाने वाले  का नाम ! यही वजह है कि राजस्थान का निवासी बंगाल , बंगाल का निवासी तमिलनाडू या अन्यत्र  बहाल हो जाते है ! दाने न छोड़ें !


( इस उदहारण में नाम भी लिखा जा सकता है , पर लेख कुरूप हो जायेगा अतः नाम प्रस्तुत नहीं किया हूँ !.ये पुरे मेरे विचार और अनुभव है .कोई जरुरी नहीं आप भी मानें !)

Sunday, May 20, 2012

बंगलुरु में सिसकती रही जिंदगी ......

थोड़ी सी बेवफाई ....के बाद आज आप के सामने हाजिर हूँ  ! स्कूल के बंद होने और यात्राओ पर  जाने के  दिन  , शुरू हो गए है ! ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ ! नागपुर गया वाराणसी गया , बलिया गया और बंगलुरु की याद और संयोग वापस खींच ले आई ! कारण  ये थे की लोको चालको की उन्नीसवी अखिल भारतीय अधिवेसन , जो बंगलुरु में  सोलह और सत्रह मई को निश्चित था , में  शरीक होना था   ! पडोसी जो ठहरा ! एक तरह से वापसी अच्छी ही रही !  माथे  की गर्मी और  पसीने से निजात  मिली ! उत्तर और दक्षिण भारत के गर्मी में इस पसीने की एक मुख्य भूमिका  अंतर  के लिए काफी है !

                                                ज्ञान ज्योति आडिटोरियम / बंगलुरु
बंगलुरु जैसे मेगा सीटी में इस अधिवेशन का होना , अपने आप में एक महत्त्व रखता है ! देश के -कोने - कोने से सपरिवार लोको चालको का आना स्वाभाविक था  और इससे इस अधिवेशन में चार चाँद लग गए ! इसके सञ्चालन की पूरी जिम्मेदारी दक्षिण-पच्छिम रेलवे के ऊपर थी और दक्षिण तथा दक्षिण मध्य रेलवे की सहयोग  प्राप्त थी !

इस अधिवेशन में चर्चा  के  मुख्य विषय थे  --
1) अखिल भारतीय कार्यकारिणी का नए सिरे से चुनाव
2) पिछले सभी कार्यक्रमो की समीक्षा
3)लंबित समस्याओ के निराकरण के उपाय
4)संगठनिक कमजोरी / उत्थान के निराकरण / सदस्यों में प्रचार
5) छठवे वेतन आयोग के खामियों के निराकरण में आई कठिनाईयों और बाधाओं का पर्दाफास
6)सभी लोकतांत्रिक शक्तियों के एकीकरण के प्रयास में आने वाली बाधाओं पर विचार
7)नॅशनल इंडस्ट्रियल त्रिबुनल और अब तक के प्रोग्रेस .
8) चालको के ऊपर दिन प्रति दिन  बढ़ते . दबाव और अत्याचार
वगैरह - वगैरह ..

                                                        आडिटोरियम का मंच 
इस अधिवेशन को  उदघाटन  कामरेड  बासु देव आचार्य जी ने अपने भाषणों से किया ! उन्होंने कहा की सरकार श्रमिको के अधिकारों के हनन में सबसे आगे है ! आज श्रमिक वर्ग चारो तरफ से , सरकारी  आक्रमण के शिकार हो रहे  है ! उनके अधिकारों को अलोकतांत्रिक तरीके से दबाया जा रहा है ! अधिवेशन के पहले दिन विभिन्न संगठनो के नेताओ  ने अपने विचार रखे ! सभी नेताओ ने सरकार की गलत नीतियों की बुरी तरह से आलोचना की ! चाहे महंगाई हो या रेल भाड़े की बात , पेट्रोल की कीमत हो या सब्जी के भाव ! 99% जनता त्रस्त  और 1% के हाथो में दुनिया की पूरी सम्पति ! गरीब और गरीब , तो अमीर और अमीर !

 दोपहर भोजन के बाद बंगलुरु रेलवे स्टेशन से लेकर ज्ञान ज्योति आडिटोरियम तक मास रैली निकाली  गयी , जिसमे हजारो सदस्यों  ने भाग लिया !

                                        बंगलुरु स्टेशन से आगे बढ़ने के लिए तैयार रैली !

                                    रैली के सामने कर्नाटक के लोक नर्तक , अगुवाई करते हुए !

राजस्थान से आये इप्टा के रंग कर्मियों ने भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा लिखित अंधेर नगरी , चौपट राजा  के तर्ज पर - आज के रेलवे की हालत से सम्बंधित नाटक का प्रदर्शन किया ! 


दुसरे दिन डेलिगेट अभिभाषण में चालक सदस्यों ने  कुछ इस तरह के मुद्दे सामने  प्रस्तुत किये , जो काफी सोंचनीय है --

(1)  लोको चालको को  इस अधिवेशन से दूर रखने और भाग न लेने के लिए , भरसक हथकंडे अपनाये गए ! कईयों की  डेपो में  मुख्य कर्मीदल निरीक्षक के द्वारा छुट्टी पास  नहीं  हुयी  !

(2)  कई डेपो में लोको चालको को साप्ताहिक रेस्ट नहीं दिया जा रहा है , क्योकि गाडियों को चलाने  के लिए  प्रशासन के पास अतिरिक्त चालक नहीं है ! बहुतो को लिंक रेस्ट भी डिस्टर्ब हो जाते है ! कारण गाड़िया तो नहीं रुक सकती ! माल गाडी के चालको को पंद्रह से   बीस घंटो तक कार्य करने पड़ते है ! समय से कार्य मुक्त नहीं हो पाते  है ! कईयों को रिलीफ पूछने पर चार्ज सीट के शिकार होने पड़े है ! अफसरों की मनमानी चरम सीमा पर है ! चालको के परिवार एक अलग ही  घुटन भरे जीवन जी रहे  है ! घर वापस आने पर बच्चे सोये या स्कूल गए मिलते है ! पारिवारिक / सामाजिक जीवन से लगाव  दूभर हो गए है ! "  पापा कब घर आयेंगे ? " - पूछते हुए बच्चे माँ के अंक में सो जाते है ! चालको की पत्त्निया हमेशा ही मानसिक और शारीरिक बोझ से  दबी रहती है ! घर में  सास - ससुर और बच्चो की परवरिश की जिम्मेदारी इनके ऊपर ही होती है ! अजीब सी जिंदगी है !

अणिमा दास  ( स्वर्गीय एस. के . धर , भूतपूर्व सेक्रेटरी जनरल /ऐल्र्सा की पत्नी सभा को संबोधित करते ह !)  इन्होने लोको चालको के पत्नियो से आह्वान किया की वे अपने पति के मानसिक तनाव को समझे तथा सहयोग बनाये रखे !

(3 अस्वस्थता की हालत में रेलवे हॉस्पिटल के डाक्टर चालको को मेडिकल छुट्टी पर नहीं रख रहे है ! उन्हें जबरदस्ती वापस विदा  कर देते है ! परिणाम -कईयों को ड्यूटी के दौरान मृत्यु /ह्रदय गति  रुकने से मौत तक हो गयी है ! डॉक्टर घुश खोर हो गए है !

(4) चालको के डेपो इंचार्ज ...मनमानी कर रहे है , उनके आवश्यकता के अनुसार  उनकी बात न मानने पर , तरह - तरह के हथकंडे अपना कर परेशान  करते है ! इस विषय पर एक कारटून प्रदर्शित किया गया था -जैसे =
" सर दो दिनों की छुट्टी चाहिए !" - एक लोको चालाक मुख्य कर्मीदल निरीक्षक से आवेदन करता है ! करीब  सुबह के नौ बजे !
" दोपहर बाद मिलो !" निरीक्षक के दो टूक जबाब !
लोको चालक दोपहर को ऑफिस में गया और अपनी बात दोहरायी !
" शाम को 5  बजे आओ !" निरीक्षक ने संतोष जताई !
बेचारा लोको चालक 5 बजे के बाद ऑफिस में गया ! निरीक्षक की कुर्सी खाली  मिली !
ये वास्तविकता है !

(5) चालको के अफसर भी कम नहीं है ! अनुशासित को दंड और बिन - अनुशासित की पीठ थपथपाते है ! अलोकतांत्रिक रवैये अपना कर ,चार्ज सीट दे रहे है ! छोटे - छोटे गलतियों के लिए मेजर दंड दिया जा रहा है !  डिसमिस  / बर्खास्त  उनके हाथ के खेल  हो गए है ! कितने तो पैसे कमाने के लिए चार्ज सीट दे रहे है !

(6) सिगनल लाल की स्थिति में पास करने पर ..सीधे चालको को बर्खास्त किया जा रहा है ,बिना सही कारण जाने हुए ! जब की कोई भी चालक ऐसी गलती नहीं करना चाहता  ! इसके पीछे कई कारण होते है ! अपराधिक क्षेत्र में सजा के अलग - अलग प्रावधान है , पर चालको के लिए कारण जो भी हो , सजाये सिर्फ एक --बर्खास्त / डिसमिस  ! सजा का एक घिनौना रूप !


(7) कई एक रेलवे में लोको चालको को बुरी तरह से परेशान  किया जा रहा है ! बात - बात पर नोक - झोंक !

(8) रेलवे में घुश खोरी अपने चरम पर है ! अफसर बहुत ही घुश खोर हो गए है ! उनके पास रेलवे से एकत्रित की गयी अकूत सम्पदा है ! सतर्कता विभाग लापरवाह है ! घुश खोरी का मुख्य मार्ग ठेकेदारी है , जिसके माध्यम से घुश अर्जित किये जाते है ! यही वजह है की ठेकेदारी जोरो पर है !

(9) अस्पतालों,रेस्ट रूम और खान-पान व्यवस्था बुरी तरह से क्षीण हो चुकी है ! लोको चालक इनसे बुरी तरह परेशान है ! शिकायत कोई सुनने वाला नहीं है ! शिकायत  सुनने वाला  घोड़े बेंच कर सो रहा है !

(10) रेलवे का राजनीतिकरण हो गया है ! राज नेता इसे तुच्छ स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने लगे है ! कुछ दिनों में इसकी हालत इन्डियन वायु सेवा  जैसी हो जाएगी ! यह एक गंभीर समस्या है !

  और भी बहुत कुछ भारतीय व्यवस्था के ऊपर करारी चोटें   हुयी , जो सभी को रोजाना प्रत्यक्ष दिख रहा है !

सभी के प्रश्नों का जबाब देते हुए काम. एम्.एन. प्रसाद सेक्रेटरी जनरल ने कहा की आज सभी श्रमिक वर्ग को सचेत और एकता बनाये रखते हुए ...आर - पार की लडाई लड़नी  पड़ेगी   !

अधिवेशन  के आखिरी में नए राष्ट्रिय कार्यकारिणी का चुनाव हुए ! जिसमे एल.मणि ( राष्ट्रिय अध्यक्ष ),एम् एन प्रसाद (राष्ट्रिय सेक्रेटरी ) और जीत  सिंह टैंक ( राष्ट्रिय कोषाध्यक्ष ) निर्विरोध चुने गए !
                                                   सजग प्रहरी एक चौराहे पर