Sunday, February 23, 2014

कहानी - दो पैर

मै अपने किसी कार्य हेतु तिरुपति जा रहा था । प्लेटफॉर्म के एक सीट पर बैठा  ट्रैन के आने का इंतज़ार कर रहा था । चारो तरफ गहमा - गहमी थी । सभी को सिर्फ  ट्रेन की  इंतजार थी । चारो तरफ  नजर  दौड़ाई  । शायद कोइ जानकार  
 साथी मिल जाए ? दूर भीड़ के एक कोने में एक व्यक्ति के ऊपर नजर पड़ी  । वह अपने बैशाखी के सहारे खड़ा था । अनायास उसकी नजर मेरे ऊपर पड़ी ।वह मुझे  बार - बार देख रहा था । मुझे भी वह कुछ परिचित सा लगा । शायद कहीं देखा हो  । बार -बार माथे पर बल दिया किन्तु सफलता नहीं मिली क्यूंकि अपाहिज से कभी कोई ताल्लुक नहीं रहा । ट्रेन आ चुकी थी । सभी जगह पाने कि होड़ में दौड़े । ट्रेन समय से पहले आई  थी । अतः यह तो निश्चित था कि पहले नहीं छूटेगी । 

मै एक कम्पार्टमेंट के अंदर जगह पा लीथी  । अनायास वह बैशाखी वाला व्यक्ति भी मेरे सामने वाली सीट पर आ बैठा । मेरे मुंह खुले रह गए । यह तो वही नायडू था  ,जिसे दो वर्ष पहले एक ट्रेन एक्सीडेंट ने अपाहिज बना दिया था । " नमस्ते नायडू " - नायडू से उम्र में बड़े  होने के  वावजूद भी मेरे मुख से आत्मीय स्वर निकल पड़े । नायडू ने भी स्वीकृति में - मेरी तरफ देखा और प्रशंशनीय मुद्रा में कहा - " शेखर सर  नमस्ते । कैसे है सर जी  ? बहुत दिनों के बाद मिले है ?"  उसके चेहरे 
पर एक अजीब सी ख़ुशी कि रेखाए नांच गयी ।मुझे यह जानकर ख़ुशी हुई कि वह मुझे अभी भी  
पहचान लिया था । वैसे तो उस ट्रेन एक्सीडेंट के बारे में मुझे सूचना थी ,पर नायडू ने दोनों  पैर  
गवा दिए थे , इसकी जानकारी  नहीं थी । 

" ये कैसे हुआ नायडू ?" - मैने विस्तृत जानकारी हासिल करने कि कोशिश की । उसने अगल - बगल देखें और एक लम्बी साँस लेते  हुए कहा । " सर आप को उस दुर्घटना कि जानकारी तो है ही , पर प्रशासन कि लापरवाही की  वजह से मुझे ये पैर गवाने पड़े ।रिलीफ वैन देर से आई थी  " इतना कहते  ही उसके आँखों में पानी भर आया  । " मै दो घंटे तक लोको में फँसा रहा । सभी समझ रहे थे कि मै मर गया हूँ ।अस्पताल पहुँचने के पहले ही मेरे दोनों पैर अधिक रक्तस्राव की  वजह से ढीले पड़ गए थे ।मै  उन लोको पायलटो का शुक्र गुजार हूँ जिन्होंने अपने खून दानकर मेरी जान बचाई । अन्यथा। .... । " नायडू ने अपनी आँखे पोछी और अपने हाथ कि अंगुलियो को मरोड़ने लगा । 

मैंने कहा -" ईश्वर को शायद यही मंजूर था नायडू । ईश्वर ही सबका रखवाला है । " मुझे पता था लोको पायलटो के परिवार वाले कैसे- कैसे  दर्द और अलगाव बर्दाश्त  करते है ।कुछ पूछूं ? इसके पहले ही नायडू ने कहा -"सर आज मेरी पत्नी ही मेरी दो पैर है ,इसके वजह से जिन्दा हूँ । " इतना कह नायडू ने बगल में बैठी अपनी पत्नी से परिचय करवाया । इस महान महिला के प्रति आदर स्वरूप मेरे दोनों हाथ नमस्कार हेतु  जुड़ गए ।उस साध्वी ने भी एक हल्की ख़ुशी के साथ अपने हाथ जोड़ दिए ।बिलकुल यह सच है कि लोको पायलटो को कोई सम्बल देता है तो वह है उनका परिवार ।तब - तक तिरुपति आ चूका था । हम सभी काम्पार्टमेंट से बाहर आ गए थे । नायडू ने मुझसे मिलने कि ख़ुशी जाहिर की  और सपरिवार आगे बढ़ गया ।

 मै एक टक लगाये सोंचता  रहा -यह कैसी विडम्बना है , दुनिया के मुसाफिरो को मंजिल तक ले जाने वाला , बैशाखियों के सहारे अपनी मंजिल तय कर  रहा है । क्या यह सच है  प्रशासन  इन्हे कोल्हू के बैल से ज्यादा महत्त्व नहीं देता ? जागो लोको पायलटो .... नयी सूरज की  नयी किरण अभी बाकी है । 

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (24-02-2014) को "खूबसूरत सफ़र" (चर्चा मंच-1533) पर भी होगी!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बढ़िया प्रस्तुति- -
    आभार आदरणीय-

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