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Friday, March 11, 2016

नपुंशक

आज कल शिक्षा का क्षेत्र  काफी विकसित हो गया है । जो समय की मांग है । वही इस शैक्षणिक संस्थानों से निकलने वाले भरपूर सेवा का योगदान नहीं देते है । सभी को सरकारी नौकरी ही चाहिए , वह भी आराम की तथा ज्यादा सैलरी होनी चाहिए किन्तु अपने फर्ज निभाते वक्त आना कानी करते है । कई तो कोई जिम्मेदारी निभाना ही नहीं चाहते । किस किस विभाग को दोष दूँ समझ में नहीं आता । ऐसा हो गया है की सरकारी बाबुओ और अफसरों के ऊपर से विश्वास ही उठता जा रहा है । आज हर कोई किसी भी विभाग  में किसी कार्य के लिए जाने के पहले ही यह तय करता है कि उसका कार्य कितने दिनो में संपन्न होगा और उसे कौन कौन सी बाधाओं का सामना करना पड़ेगा  । वह दोस्तों से अधिक जानकारी की भी आस लगाये रखता है  ।

क्या यह सब सरकारी विफलताओं को दोष देने से दूर हो जायेगा ? कतई नहीं । हम सभी का सहयोग बहुत जरुरी है । बच्चे का जन्म होते ही उसकी जिम्मेदारिया बढ़नी शुरू हो जाती है । वह किसी की अंगुली पकड़ कर चलने का प्रयास करता है । उसे अपने माता -पिता के प्यार से आगे की कर्मभूमि का ज्ञान शिक्षण संस्थाओ से मिलता है । उस ज्ञान का दुरूपयोग या उपयोग उसके शैक्षणिक  शक्ति पर निर्भर करता है । पुराने ज़माने में गुरुकुल या छोटे छोटे स्कुल हुआ करते थे । हमने देखा है उस समय  शिक्षक और शिष्य में एक अगाध प्रेम हुआ करता था । दोनों एक दूसरे की इज्जत करते थे । मजाल है की शिष्य गुरु के ऊपर कोई आक्षेप गढ़ दे या गुरु शिष्य पर क्यों की आपसी मेल जोल काफी सुदृढ़ होते थे । उस समय नैतिक विचार नैतिक आचरण सर्वोपरि थे । छोटे बड़ो की इज्जत और बड़े छोटे को भी सम्मान देते थे । कटुता और द्वेष का अभाव था । ऐसे गुरुकुल या शिक्षण स्कुल से निकलकर आगे बढ़ने वालो के अंदर एक उच्च कार्य करने की क्षमता थी । शायद ही कभी कोई किसी को शिकायत का अवसर देता था । इस तरह एक स्वच्छ समाज और देश का निर्माण होता था । 

आज कल की दुर्दसा देख रोने का दिल करता है । शैक्षणिक संस्थान व्यवसाय के अड्डे बनते जा रहे है । शिक्षा के नाम पर कोई सम्मान जनक सिख तो दूर समाज को बर्बादी के रास्ते पर चलने को उकसाए जा रहे है । शैक्षणिक संस्थान रास लीला , नाच और गान के केंद्र बनते जा रहे है । नयी सोंच और नयापन इतना छा गया है कि कभी कभी बेटे  बाप को यह कहते हुए शर्म नहीं करते कि चुप रहिये आप को कुछ नहीं पता । अब आप का जमाना नहीं है । पिता के प्रति पुत्र का आचरण आखिर समाज को किधर मोड़ रहा है । बलात्कार , देश के प्रति अनादर , व्यभिचार समाज में इतना भर गया है और हम नैतिक रूप से इतने गिर गए है कि अगर कोई बहन को भी लेकर बाहर निकले तो देखने वाले तरह तरह के विकार तैयार कर लेते है , फब्तियां कसेंगे देखो किसे लेकर घूम रहा है। ऐसा नहीं है  की सभी ऐसे ही है पर अच्छो की संख्या नगण्य है । उनको कोई इज्जत नहीं मिलती । 

हमारे रेलवे में दो रूप है । प्रशासक और कर्मचारी । आज सभी शिक्षित है चाहे जिस किसी भी रूप में कार्यरत हो ।कर्मचारियों को हमेशा उत्पादन देना है जिसे वे हमेशा जी जान से पूरा करते है चाहे दस आदमी का कार्य हो और उस दिन 5 ही क्यों न हो । इस असंतुलन से कर्मचारी सामाजिक  , पारिवारिक , धार्मिक और राजनितिक उपेक्षा से प्रभावित हो जाते है । क्या एक कर्मचारी किसी गदहे जैसा है ? जो मालिक को खुश करने के लिए अपना सब कुछ समर्पण कर देता है । क्या कहे हम तो मजदूर है नीव की ईंट से लेकर  भवन के कंगूरे को सजाते है । फिर भी हमारी जिंदगी नीव की ईंट के बराबर ही है  । सभी कंगूरे की सुंदरता देखते है नीव की ईंट पर किसी का ध्यान नहीं जाता । शायद उन्हें नहीं मालूम की यह भव्य सुंदरता नीव की ईंट पर ही ठहरी है ।प्रशासक उन उच्च श्रेणी में आते है जो हमेशा  कर्मचारियों पर बगुले की तरह नजर गड़ाये रहते है । इन्हें विशेषतः उत्पादकता को बढ़ाना तथा कर्मचारियों के कल्याणकारी योजनाओ को सुरक्षित रखना होता है  । जो एक क़ानूनी दाव पेंच के अंदर क्रियान्वित होता या करना पड़ता  है । यह भी एक जटिल क़ानूनी प्रक्रिया के अनुरूप होता है । लेकिन ज्यादातर देखा गया है की प्रशासक इस क़ानूनी प्रक्रिया का दुरूपयोग करते  है जिससे उनकी स्वार्थ सिद्धि हो सके । मेरा अपना अनुभव है की अच्छे प्रशासक बहुत कम हुए है और है । आज कल इन्हें अपने को दायित्वमुक्त व् फ्री रखने की आदत बन गयी है । ये सब उपरोक्त सड़ी हुयी शिक्षा का असर ही तो है । कौन अच्छा अफसर है ? आज कल समझ पाना बड़ा मुश्किल है । आम आदमी यही सोचता है की चलो ये अफसर ख़राब है तो अगला अच्छा है , आगे बढे। काम जरूर हो जायेगा । किन्तु सच्चाई कुछ और ही होती है । 

इसे आप क्या कहेंगे ? 

उस दिन जब बंगलुरु स्टेशन पर  बॉक्स पोर्टर ने मेरे बॉक्स को पटक कर बुरी तरह से तोड़ दिया था । जुलाई 2015 की घटना है । मैंने इसकी सूचना सभी को दी चाहे मेरे मंडल का अफसर हो या बंगलुरु का । फिर भी कोई कार्यवाही नहीं हुयी । मुझे संतोष नहीं हुआ और मैंने फिर एक लिखित शिकायत मंडल रेल मैनेजर बंगलुरु को भेजा । इसकी कॉपी अपने मंडल रेल मैनेजर को व्हाट्सएप्प से भेजा । फिर भी कोई न कारवाही हुयी और न enquiry । शायद छोटी और अपने स्टाफ की शिकायत समझ इस पर कोई कार्यवाही करना किसी ने उचित नहीं समझा । अगर वही हमसे कोई गलती हो जाय तो हमें नाक पकड़ कर बैठाते है । उस पर धराये लगाकर सजा की व्यवस्था तुरंत करते है क्यों की उनके लिए ये आसान है । ऐसे समाज और कार्यालयों  की त्रुटियों को आखिर बढ़ावा कौन दे रहा है ।  शायद हमारे सड़ी हुयी शिक्षा का प्रभाव है । जिसे इन नपुंशक अफसरों की वजह से औए बढ़ावा मिलता है और एक दिन यह एक नासूर बन जाता है । आज कल ऐसे नासूरों का इलाज करना अति आवश्यक हो गया है । आखिर इसका इलाज कौन करेगा ? 

आज हमारे नए प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के कुछ कार्यक्रमो से काफी खुश हूँ क्यों की इन नपुंशको को  एक सठीक इलाज मिलने वाली है । रेलवे ने फिल्ट्रेशन शुरू कर दी है इसके अंतर्गत उन अफसरों पर गाज गिरेगी और उन्हें CR के अंतर्गत निकाल दिया जायेगा जिन्होंने 30 वर्ष सर्विस या 55 वर्ष की उम्र को पूरी कर ली है तथा अच्छे रिकार्ड नहीं है । काश ऐसे नपुंशको पर जल्द गाज गिरे । समाज बहुत सुधर जायेगा और कर्मठ कर्मचारियों के जीवन में एक नए सबेरे का उदय होगा ।

कर्मठ और मेहनत कश मजदूरो को नमस्कार । यह लेख उन मेहनती  कर्मचारी समूह को समर्पित है ।



Monday, January 11, 2016

एक कहानी - मनरेगा ।

सड़क के किनारे वह अधमरा कराह रहा था । उसे किसी की सख्त मदद की जरुरत थी । भीड़ उमड़ता जा रहा था । पर कोई भी मदद के लिए आगे नहीं आ रहा था । यह भी एक सामाजिक कुरीति है ।  लोगो के जबान पर फुस  फुसाहट की ध्वनि आ रही थी । माजरा क्या है ? समझ से बाहर था । हम भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ने को उतावले थे । उस घायल व्यक्ति के नजदीक पहुँच खड़े  थे । कैमरा मैन वीडियो लेने के लिए तैयार उतावला  था वह मेरे अनुमति का इंतजार कर रहा था ।

तभी एक महिला एक छोटे बच्चे को गोद में लिए आयी और उस व्यक्ति के शारीर पर गिर रोने लगी । हमने उस महिला से कुछ पूछने की कोसिस  कि पर वह चिल्लाने लगी  और जोर जोर से  बोली - मैं कहती थी कि बैर मत मोलो । हम भूखे रह लेंगे । पैसे दे दो । हे भगवान कोई तो हमारे ऊपर रहम करो ? हमसे रहा न गया । मैंने उस महिला को अपना परिचय दिया और पूरी जानकारी हासिल करने की एक कोशिश की । पर वह महिला कुछ भी बताने से इंकार कर दिया  । उनके पहनावे और व्यवहार से यही लगता था कि वे बेहद गरीब थे । मीडियावाले है सुनते ही कुछ भी कहने से इंकार कर दी । अगल बगल के लोगो से कुछ जानकारी चाही किन्तु असफल रहा । मामला गंभीर था । हमने कुछ करने की सोंची ।  तभी हमारे पास एक लंबा चौड़ा और बड़ी बड़ी मुच्छो वाला आ खड़ा हुआ । वह गुर्राते हुए बोला । अबे नया नया आया है क्या ? तेरे को समाचार चाहिए । आ मेरे साथ मैं सब कुछ बताऊंगा । मैं उसके मुह को देखने लगा । देखा की भीड़ अपने आप खिसकने लगी । जाहिर था यह कोई यहाँ का दबंग है ।

हम पत्रकारो को कभी कभी आश्चर्य तो होता है पर डर नहीं । जी हम पत्रकार है । हमें इस घटना की जानकारी चाहिए । मैंने कहा । जरूर मिलेगा । आईये मेरे साथ । कह कर वह मुड़ा और हम उसके पीछे हो लिए । अब हम एक बड़ी हवेली के सामने खड़े थे । दरवाजे पर दो लठैत बिलकुल पहरेदार जैसा । हवेली के सामने एक बड़ा आम का बगीचा था वही हमें बैठने के लिए कहा गया । स्वागत सत्कार के बिच उन्होंने हमें सब कुछ बता दिया था । सुन कर पूरी घटना समझ में आई ।ऐसे शासन और जनता के सुविधाओकी धज्जिया उड़ते  कभी नहीं देखा था । उन्होंने बताया की वे इस गांव के मुखिया है । मनरेगा के नाम पर काफी रुपये आते है । गांव वालो को काम के नाम पर जो पैसे आते है उन्हें उसमे से मुखिया को  पैसे देने होते है । सभी के बैंक खाते है । मजदूरी के पैसे सीधे खाते में जाते है । सभी को उसमे से मुखिया को कमीशन देने पड़ते है । मुखिया किसी से कोई काम नहीं करवाता है और सभी का हाजरी बना कर भेज देता है । इसी एवज में कमीशन लेता है । उस व्यक्ति ने कमीशन देने से इंकार कर दिया था । अतः मुखिया के कोप भाजन का शिकार बन गया था । अब समझ में आया मनरेगा का पैसा कैसे बर्बाद होता है और इससे कोई विकास भी नहीं ।

मुखिया हमें मुख्य द्वार तक छोड़ने आया और धीरे से एक सौ की गड्डी हाथ में पकड़ा दी । हमने मनाही की पर वह न माना । कहने लगा - रख लीजिये ये तो एक छोटा सा नजराना है । दिल बेचैन था । कर्तव्य के साथ खिलवाड़ करने का मन कतई नहीं था । एक उपाय सुझा । हम सीधे उस गरीब के घर गए । देखा उसके दरवाजे पर एक्का दुक्का व्यक्ति खड़े थे । उस व्यक्ति की पत्नी दरवाजे पर बाहर बैठी थी । छोटा बच्चा उसे बार बार नोच रहा था । गरीबी ठहाके लगा रही थी । मेरे हाथ एक छोटी सी मदद के लिए उसके तरफ बढे और मैंने उस महिला की ओर उस सौ की गड्डी को बढ़ा दी जिसे मुखिया ने नजराने की तौर पर दी थी । वक्त को करवट बदलते देर न लगा । उस महिला ने उस गड्डी को घुमा कर जोर से दूर फेक दिया । मेरे दरवाजे से चले जाओ मुझे भीख नहीं चाहिए । हम जितना में  है उसी में जी लेंगे ।

मैं हतप्रभ हो देखते रह गया । मैं हार चूका था । हम धनवान होकर भी गरीब थे और वे गरीब होकर भी अमीर क्यों की उनके पास ईमान और इज्जत आज भी बरकरार थी ।

Wednesday, July 23, 2014

दयनीय पिता और अर्थहीन दशा



आज बहुत दिनों के बाद शकील मुझे मिला था । वह उस डिपो में चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी था । मुझेबहुत ही आदर करता  था । यह उसकी अपनी बड़प्पन थी । वह देखते ही सलाम किया । मै भी मुस्कुराते हुए स्वीकृति में हाथ उठा दिया और उससे पूछा - कहो शकील कैसे हो ? गुंतकल कैसे आना हुआ ? सर ऑफिस काम से ही आया हूँ । बातो - बातो में यह भी पूछ लिया - परिवार कहाँ रखे हो ? और हा वह नवीन कैसा है ? परिवर गुंतकल में ही है सर । फिर वह कुछ उदास सा हो गया । आगे कहने लगा -सर आप के ट्रांसफर के करीब दो - तीन महीने बाद ही नवीन का देहांत हो  गया ।मेरा  मुह आश्चर्य से खुले के खुले रह गए । पूछा - वह कैसे हुआ ? क्या बीमार था ? नहीं सर । लोग कहते है - स्टोव से जल कर मर गया । 

अजीब समाचार था । घर आया । दिल में  एक अनजाने दर्द ने घर कर  लिया जैसे मैंने घोर अपराध कर दिए हो । बातो ही बातो में इस घटना की जिक्र पत्नी से भी कर दिया । पत्नी ने अफ़सोस जाहिर की  । पत्नी बोली - आप ने गलती कर दी अन्यथा ऐसी घटना नहीं होती थी । उस वक्त उसे आप को उसकी  मदद करनी चाहिए थी । मैंने लम्बी साँस ली । किसे मालूम था एक दिन ऐसा भी होगा ?


उन दिनों मै एक छोटे से डिपो में कार्य करता था । शाम का समय । अभी - अभी ड्यूटी से उतरा था । पत्नी चाय नास्ते बनाने के लिए किचन के अंदर व्यस्त थी । मै बाथ रूम में मुह -हाथ धोने के लिए अंदर गया । तभी दरवाजे पर लगी काल बेल को किसी ने दबाया । घंटी बजी , पत्नी ने बाहर जाकर देखने की प्रयत्न की । नवीन आया है । पत्नी ने आवाज दी ।  अरे अभी - अभी ही गाड़ी लेकर आया हूँ , यह क्यों आ गया ? ठीक  ही कहते है इन पियक्कड़ों की कोई भरोसा नहीं होती ? पैसे की कमी पड़ी होगी ? बाथरूम में मन ही मन बुदबुदाया और पत्नी से बोला - कह दीजिये थोड़ा इन्तेजार करे । अभी आया । 

घर से बाहर निकला । देखा नवीन दोनों हाथो को सामने सीने के ऊपर मोड़े  हुए स्थिर खड़ा था । लम्बा , गोरा और पतला छरहरा आधे उम्र का इंसान । मुझसे उम्र में बड़ा किन्तु प्रशासनिक पद में छोटा था । देखते ही नमस्कार किया और सहमे हुए खड़ा रहा । शायद उसके मुह से कोई शव्द नहीं निकल पा रहे थे । मैंने ही पूछ लिया  - कहो क्या बात है ? देखा उसके चहरे पर उदासी झलक रही थी । सर एक जरूरी काम है । कहो ? मैंने हामी भरी । सर मै रेलवे नौकरी से स्वैक्षिक अवकाश लेना चाहता हूँ  कृपया एक दरख्वास्त लिख दे । 

वस इतनी सी बात । कल सुबह भी आ सकते थे ? किन्तु मेरा मन कारण जानने के लिए जागरूक हो गया । सच में आखिर इसकी क्या वजह है ? कोई मेहनत की नौकरी भी नहीं है । इसके पिने की लत से सभी वाकिफ  है । सभी एडजस्ट भी करते है । मैंने उससे पूछ ही डाला -" नवीन आखिर क्यों ऐसा करना चाहते हो ? " वह रोने लगा । बोला - " सर मेरा बेटा मुझसे कहता है ,जा के कहीं  मर क्यों नहीं जाते । कम से कम उसे एक नौकरी मिल जाएगी अन्यथा हम ही किरोसिन छिड़क कर तुम्हे मार डालेंगे ।"  मै इसे  गम भीरता से नहीं लिया और उसे समझा बुझा कर -कल सुबह लिख दूंगा कह कर बिदा कर दिया । फिर वह कई बार मिला किन्तु दरख्वास्त लिखने की अनुरोध कभी  नहीं  दुहरायी । 

आज मन विचलित था । शायद उसने सही अभिव्यक्ति की थी । एक दयनीय पिता अपने दयनीय अर्थ से परास्त हो चूका था । काश ऐसा न होता । संसय कहाँ तक उचित है - कह नहीं सकता । ( नाम और स्थान काल्पनिक किन्तु सत्य ) 

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Wednesday, April 23, 2014

लोवर बर्थ


२७ मार्च २०१४ दिन गुरुवार । राजधानी एक्सप्रेस लेकर सिकंदराबाद आया था । आज ही आल इण्डिया लोको रनिंग स्टाफ एसोसिएसन  के आह्वान पर , लोको पायलट जनरल मैनेजर के ऑफिस के समक्ष धरने  पर बैठने वाले थे । मेरा  को -लोको पायलट सैयद हुमायूँ और मै  धरना  में शरीक हुए । दोपहर को दक्षिण मध्य रेलवे के जोनल लीडरो की  वैठक थी । पूरी रात गाड़ी चलाने  और धरना में शामिल होने कि वजह से थकावट महसूस हो रही  थी कारण  पिछले  दिन बुखार से भी ग्रसित था । अतः जोनल सदस्यों की सभा में अनुपस्थित ही रहा । 

वापसी के समय कोई गाड़ी नहीं थी । लिंक के अनुसार गरीब रथ (१२७३५) से मुख्यालय वापस जाना था । सिकंदराबाद से यह गाड़ी १९.१५ बजे छूटती  है । हम समयानुसार प्लॅटफॉर्म पर पहुँच गए । हमने एडवांस में अपने बर्थ आरक्षित कर ली थी । इस लिए कोई असुविधा  का सवाल नहीं था । कोच -७ / बर्थ संख्या -३४ और ३७ । प्लॅटफॉर्म  का नजारा अजीबो - गरीब  था । गाडी पर लेबल गरीबो की , पर पूरी उम्मीदवारी अमीरो की  थी । लगता था जैसे श्री लालू यादव जी ने अमीरो को तोहफा स्वरुप  इस ट्रेन को चलाने का निर्णय लिया था । शायद असली सच्चाई  यही हो  । इसीलिए तो गरीबो ने श्री लालू जी को गरीब बना दिए और वह बनते ही जा रहे है । सामाजिक कार्य में खोट कभी छुपती नहीं है । आज सबको मालूम है , लालू जी किस मुसीबत से जूझ रहे है । 

हमने अपने बर्थ ग्रहण किये और लिंगमपल्ली आने के पूर्व ही डिन्नर कर ली । लिंगमपल्ली में यात्रियो की  काफी भीड़ हो जाती है । आध घंटे में लिंगमपल्ली भी आ गया । कोच खचा - खच तुरंत भर गया । यात्रियो में ९०% नौजवान और १०% ही ४० वर्ष उम्र वाले या  ऊपर के होंगे । यह प्रतिसत हमेशा देखी  जा सकती है । सिकंदराबाद / हैदराबाद / बंगलूरू में जुड़वा भाई का सम्बन्ध है । प्रतिदिन लाखो की  संख्या में एक शहर से दूसरे शहर में लोगो का स्थानांतरण होते रहता है ।  अगर एक दिन भी ट्रेन सेवा रूक जाय , तो लोगो में अफरातफरी मच जायेगी

हमारे  आमने - सामने  वाले सीट पर एक दम्पति और उनके दो छोटे - छोटे प्यारे बच्चे स्थान ग्रहण किये ।  उनकी सीट भी वही थी । इनकी आयु करीब २५ - ३० वर्ष के आस - पास  होगी । पहले तो मैंने समझा कि दोनों युवक है । लेकिन ऐसा नहीं था । एक युवक और दूसरी उनकी  पत्नी थी । बिलकुल अत्याधुनिक लिबास से सज्जित । उस संभ्रांत महिला ने काले-नीले स्पोर्ट पैंट और सफ़ेद -टी  शर्ट पहन रखी थी । दृश्य का वर्णन नहीं कर सकता । आस  - पास के लोगो कि निगाहे सिर्फ उसी पर । लिबास ऐसे थे कि हमें उधर देखने में शर्म आ रही थी । अगर ऐसे पहनावे का विरोध किया जाय तो जबाब मिलेंगे  - मेरी मर्जी जैसा भी पहनू । अपने चरित्र को कंट्रोल में रखिये ।

यहाँ प्रश्न उठता है कि --

१) क्या कोई तड़क - भड़क पहनावे से महान / गुणी बन जाता है ?
२)आखिर इतनी गंदी एक्सपोज किसके लिए  ?
३)क्या ऐसे व्यक्तियो के समक्ष समाज का कोई दायित्व नहीं बनता ?
४)अपने अधिकार कि दुहाई देने वाले , क्या  दूसरे के अधिकारो का हनन नहीं करते ?
५)क्या ऐसे व्यक्ति समाज में व्यभिचार फ़ैलाने में सहयोग नहीं करते ?
६)क्या वस्त्र का निर्माण इसी दिन के लिए हुए थे या अंग ढकने के लिए ?
७)क्या हमारे समक्ष हमारी सभ्यता कोई मायने नहीं रखती ?

बहुत से ऐसे प्रश्न है , जो आज  समाज के युवा वर्ग के सामने है । अपने समाज को स्वच्छ और भारतीय बनाने में आज के युवा वर्ग को  सहयोग करनी चाहिए । इतिहास उठा के देखने से पता चलेगा कि महान व्यक्तियो के आचरण कैसे थे । स्वर्गीय और भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी जैसा अंग्रेजी आज भी कोई नहीं बोलता है और पहनावा -धोती और कुरता । स्वर्गीय इंदिराजी का इतिहास सामने है । आज के श्री मोदी जी को देखे ? डॉक्टर  अब्दुल कलाम जी को देखे है वगैरह - वगैरह । नदी में चारो तरफ जल ही जल फैली होती  है , परन्तु डुबकी किसी खास जगह ही लगायी जाती है सुरक्षित रहने के लिए । वैसे ही समाज में सुरक्षित डुबकी ( पहनावा ) क्यों नहीं ? वस्त्र तन ढकने के लिए पहने जाते है , तन दिखाने  के लिए नहीं । 

बहुत कुछ कोच में हुए जो व्यवहारिक नहीं थे । उस युवक ने हमसे पूछा - आप के बर्थ कौन से है , ये लोअर बर्थ है क्या ? हमने हामी भरते हुए कहा - जी बिलकुल सही । उसने अनुरोध किया  कि - " क्या आप लोग मेरे मीडिल बर्थ से एक्सचेंज करना  स्वीकार करेंगे  ?" हमारे मन में एक आवाज उठी ।कितने स्वार्थी हैं , ऐसे आधुनिक घोड़े पर चढ़ने वाले , हमारे लोअर बर्थ को भी छीन लेना चाहते थे  कैसी विडम्बना है । पूछने के पहले हमारे उम्र कि लिहाज तो कर लेते ? लोअर बर्थ की इच्छा सभी की होती है । ऐसे इंसानो को लोअर बर्थ  सुपुर्द करना भी उचित नहीं लगा  क्युकी गुंतकल में यात्री ज्वाइन करते  है । गुंतकल में आने वाले यात्री उन्हें डिस्टर्ब करेंगे । अतः हमने उन्हें पूरी बाते बता दी । उन्हें भी मायूसी में  संतोष करना पड़ा  । वैसे मुझे दूसरे कि पहनावे से  जलन नहीं है ,बस अपने संस्कार से वेहद लगाव है ।अपनी संस्कार छोड़ ,दूसरे की संस्कार स्वीकार करने वाले से बड़ा भिखारी भला कौन हो सकता है ?
ये वो थे जो ज़माने से बदल रहे थे , 
पर ज़माने को 
बदलने कि ताकत उनमे नहीं थी । 

Friday, November 22, 2013

राजधानी एक्सप्रेस रुक गयी ।

कभी - कभी जीवन में ऐसा लगता है कि हर चीज और अनुभव सबके बस की नहीं  होती । बहुत सी ऐसी चीजे है , जिन्हे धनवान  नहीं समझ सकते । ठीक वैसे ही धनवानो  की कुछ अनुभव  कमजोर  के पहुँच से बाहर होती है । कुछ समाज या व्यक्ति विशेष असाधारण प्रतिभावान  होते है , पर असुविधा कि वजह से अपनी प्रतिभा को विखेर नहीं पाते । शायद इसी लिए पांचो अंगुलिया बराबर नहीं है और  इसी भिन्नता कि वजह से समाज में संतुलन बना रहता है ?

 लोको पायलटो की जिंदगी भी अजीब सी  होती है । दिन में सोना , रात्रि पहर  जागते हुए कार्य को पूर्ण रूप देना ,दिनचर्या सी बन गयी है । हजारो सिगनलों , सैकड़ो मानव रहित / मानव विहीन समपार फाटको , सर्दी या गर्मी , वरसात या सुखा  , विभिन्न प्रकार के गाड़ियों / इंजनो , रुकन या प्रस्थान वगैरह - वगैरह को अनुशासन  के भीतर रहते हुए पूर्णरूप देना ही तो है लोको पायलट । समाज से दूर , परिवार से दूर बस गाड़ी के यात्रियों को ही परिवार मानकर सतत आगे बढ़ते रहते है । लोको पायलटो का   मुख्य ध्येय  -  अनुशासन में रहते हुए जान - माल की  रक्षा ,  रेलवे और देश की प्रगति में चार चाँद लगाना ही तो है । आप एक क्षण के लिए लोको पायलट बन , इनके जीवन की अनुभूतियों को महसूस कर सकते है । 

लोको पायलटो को  कार्य के समय कई छोटे या बड़े मुश्किलो का सामना करना पड़ता  है । सफलता पूर्वक त्रुटियों को झेल जाना भी एक बड़ी अनुभव होती है । हमने सिनेमा घरो में कई बार देखा होगा कि नायक /नायिका  रेलगाड़ी  में सफ़र कर रहे होते है । कोई छोटी वस्तु / घी के डब्बे / टिफिन बॉक्स को खतरे की जंजीर  से बांध देते है । तदुपरांत रेलगाड़ी  रूक जाती है । रेलगाड़ी के  कर्मचारी अपने निरिक्षण के दौरान इस गलती को देख लेते है और नायक / नायिका को खरी खोटी सुनाते  है । थोड़े समय के लिए  दर्शक हँसे बिना नहीं रह पाते और कुछ ताली तक बजा देते है । जी हाँ यह छवि गृह / सिनमोघरो  के छवि/ चलचित्र  में निर्देशक द्वारा प्रेषित , दर्शको के लिए मनोरंजन के एक मसाले के साधन मात्र होते है । ऐसी घटना वास्तविकता से परे समझी जाती है । लेकिन  -

सभ्य और शिक्षित समाज इस कार्य को कार्यान्वित कर दें , तो आप क्या कहेंगे ? क्या आपने कभी  ऐसी कल्पना कि है ? जी शायद आप को पता नहीं , यह वास्तविक जीवन में भी सम्भव हो  सकता है , जब राजधानी एक्सप्रेस ठहर गयी । कल यानि २१ नवम्बर २०१३ कि घटना प्रस्तुत है । कल मै राजधानी एक्सप्रेस को लेकर सिकंदराबाद जा रहा था । राजधानी एक्सप्रेस सेडम स्टेशन पर रुकी । इसके फर्स्ट क्लास के डिब्बे से एक यात्री उतर गया , जो लोअर बर्थ का यात्री था । राजधानी फिर रवाना हो गयी । कुछ चार / पञ्च किलोमीटर कि यात्रा के बाद किसी ने खतरे कि जंजीर खिंच दी । फिर क्या था राजधानी एक्सप्रेस तुरंत रुक गयी । जाँच के दौरान  पता चला कि फर्स्ट क्लास के कोच में उप्पर बर्थ का यात्री लोअर बर्थ में सोने के लिए निचे उतरने के लिए इस जंजीर का सहारा लिया था । शायद वह यह नहीं समझ पाया कि यह कोई साधारण जंजीर नहीं है  बल्कि खतरे की जंजीर है । अनपढ़ की गलती क्षम्य है पर सभ्य और पढ़े - लिखे कि ? जब उसकी गलती से राजधानी एक्सप्रेस रुक गयी । 

Friday, April 12, 2013

एक लघु कथा --माँ की ममता पर प्रहार |

लक्षम्मा  झोपड़ी में बैठी बी. .पि.एल चावल के कंकडो को चुन रही थी | जीर्ण शीर्ण सी झोपड़ी और वैसे ही  अंग के चिर  | फिर भी सूर्य की किरण का चुपके से झोपड़ी में आना , उस कड़वी ठण्ड और बरसात  से बेहतर लग रही  थी |

  " लक्षम्मा ..वो लोग आये है |" - उसका पति वीरन्ना बोला | लक्षम्मा धीरे से मुड़ी , उसके मुख पर भय  की रेखाए और शरीर में सिहरन दौड़ गयी | उसके मुख से शव्द नहीं निकल रहे थे  | वश केवल  - "  नहीं  " शव्द ही निकल पायें | देखो ..हमारी  दिन - दशा ठीक नहीं है | चार वेटिया है | जीना  दूभर हो गया है | ऐसे कब तक घुट - घुट कर  जियेंगे | वैसे भी अभी तीन और है |  लक्षम्मा जब - तक कुछ और कहे  , वीरन्ना ने सबसे छोटी दो वर्ष की  विटिया  को उसके नजदीक से खिंच लिया , जो माँ से चिपटी हुयी गहरी नींद में सो रही थी |

उन  व्यक्तियों में से एक  ने वीरन्ना के हाथो  पर  एक नोट का  बण्डल  रखते हुए बोला  - "  गिन लो , पुरे पांच हजार है | " फिर छोटी बिटिया को एक बिस्कुट का पैकेट पकड़ा दिए और वह ख़ुशी से खाने लगी | चलते है ! कह कर उन्होंने छोटी विटिया को गोद में उठा  आगे बढ़ गए  | लक्षम्मा दरवाजे पर खड़ी.. बाएं हाथ से साडी के पल्लू को मुह पर रख ली और दाहिने हाथ को आगे बढ़ाई...जैसे कह रही हो - नहीं .. रुक जाओ ...मेरी विटिया मुझे वापस दे दो | धीरे - धीरे वे दोनों व्यक्ति आँखों से ओझल हो गए |

लक्षम्मा के दोनों आँखों के कोर आंसुओ से भींज गएँ थे  | मुड़ कर पीछे की ओर  देखी | उसका निर्मोही  मर्द पैसे गिनने में व्यस्त था | अचानक वह बोला - ""  अरे ..ये तो पांच सौ कम है और जल्दी से  उनके पीछे दौड़ पड़ा | लक्षम्मा धम्म से जमीन पर बैठ  गयी ..इस आश  में की अब  उसकी बिटिया  वापस आ जाएगी ........