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Sunday, February 23, 2014

कहानी - दो पैर

मै अपने किसी कार्य हेतु तिरुपति जा रहा था । प्लेटफॉर्म के एक सीट पर बैठा  ट्रैन के आने का इंतज़ार कर रहा था । चारो तरफ गहमा - गहमी थी । सभी को सिर्फ  ट्रेन की  इंतजार थी । चारो तरफ  नजर  दौड़ाई  । शायद कोइ जानकार  
 साथी मिल जाए ? दूर भीड़ के एक कोने में एक व्यक्ति के ऊपर नजर पड़ी  । वह अपने बैशाखी के सहारे खड़ा था । अनायास उसकी नजर मेरे ऊपर पड़ी ।वह मुझे  बार - बार देख रहा था । मुझे भी वह कुछ परिचित सा लगा । शायद कहीं देखा हो  । बार -बार माथे पर बल दिया किन्तु सफलता नहीं मिली क्यूंकि अपाहिज से कभी कोई ताल्लुक नहीं रहा । ट्रेन आ चुकी थी । सभी जगह पाने कि होड़ में दौड़े । ट्रेन समय से पहले आई  थी । अतः यह तो निश्चित था कि पहले नहीं छूटेगी । 

मै एक कम्पार्टमेंट के अंदर जगह पा लीथी  । अनायास वह बैशाखी वाला व्यक्ति भी मेरे सामने वाली सीट पर आ बैठा । मेरे मुंह खुले रह गए । यह तो वही नायडू था  ,जिसे दो वर्ष पहले एक ट्रेन एक्सीडेंट ने अपाहिज बना दिया था । " नमस्ते नायडू " - नायडू से उम्र में बड़े  होने के  वावजूद भी मेरे मुख से आत्मीय स्वर निकल पड़े । नायडू ने भी स्वीकृति में - मेरी तरफ देखा और प्रशंशनीय मुद्रा में कहा - " शेखर सर  नमस्ते । कैसे है सर जी  ? बहुत दिनों के बाद मिले है ?"  उसके चेहरे 
पर एक अजीब सी ख़ुशी कि रेखाए नांच गयी ।मुझे यह जानकर ख़ुशी हुई कि वह मुझे अभी भी  
पहचान लिया था । वैसे तो उस ट्रेन एक्सीडेंट के बारे में मुझे सूचना थी ,पर नायडू ने दोनों  पैर  
गवा दिए थे , इसकी जानकारी  नहीं थी । 

" ये कैसे हुआ नायडू ?" - मैने विस्तृत जानकारी हासिल करने कि कोशिश की । उसने अगल - बगल देखें और एक लम्बी साँस लेते  हुए कहा । " सर आप को उस दुर्घटना कि जानकारी तो है ही , पर प्रशासन कि लापरवाही की  वजह से मुझे ये पैर गवाने पड़े ।रिलीफ वैन देर से आई थी  " इतना कहते  ही उसके आँखों में पानी भर आया  । " मै दो घंटे तक लोको में फँसा रहा । सभी समझ रहे थे कि मै मर गया हूँ ।अस्पताल पहुँचने के पहले ही मेरे दोनों पैर अधिक रक्तस्राव की  वजह से ढीले पड़ गए थे ।मै  उन लोको पायलटो का शुक्र गुजार हूँ जिन्होंने अपने खून दानकर मेरी जान बचाई । अन्यथा। .... । " नायडू ने अपनी आँखे पोछी और अपने हाथ कि अंगुलियो को मरोड़ने लगा । 

मैंने कहा -" ईश्वर को शायद यही मंजूर था नायडू । ईश्वर ही सबका रखवाला है । " मुझे पता था लोको पायलटो के परिवार वाले कैसे- कैसे  दर्द और अलगाव बर्दाश्त  करते है ।कुछ पूछूं ? इसके पहले ही नायडू ने कहा -"सर आज मेरी पत्नी ही मेरी दो पैर है ,इसके वजह से जिन्दा हूँ । " इतना कह नायडू ने बगल में बैठी अपनी पत्नी से परिचय करवाया । इस महान महिला के प्रति आदर स्वरूप मेरे दोनों हाथ नमस्कार हेतु  जुड़ गए ।उस साध्वी ने भी एक हल्की ख़ुशी के साथ अपने हाथ जोड़ दिए ।बिलकुल यह सच है कि लोको पायलटो को कोई सम्बल देता है तो वह है उनका परिवार ।तब - तक तिरुपति आ चूका था । हम सभी काम्पार्टमेंट से बाहर आ गए थे । नायडू ने मुझसे मिलने कि ख़ुशी जाहिर की  और सपरिवार आगे बढ़ गया ।

 मै एक टक लगाये सोंचता  रहा -यह कैसी विडम्बना है , दुनिया के मुसाफिरो को मंजिल तक ले जाने वाला , बैशाखियों के सहारे अपनी मंजिल तय कर  रहा है । क्या यह सच है  प्रशासन  इन्हे कोल्हू के बैल से ज्यादा महत्त्व नहीं देता ? जागो लोको पायलटो .... नयी सूरज की  नयी किरण अभी बाकी है । 

Wednesday, January 22, 2014

आधा घंटा पहले का निर्णय

मै अपने पाठको के समक्ष हमेश ही सत्य और प्रमाणिकता से जुड़े विषयों को प्रस्तुत करते रहा हूँ , चाहे कहानी हो या अनुभव । कभी -कभी अति आश्चर्य होता है , जब सत्य सामने खड़ा हो  और हम उसे समझ पाने या अनुभव कर सकने में अक्षम हो जाते है । कही ऐसा तो नहीं कि होनी को कोई टाल नहीं सकता ? जो भी हो , हवा की रूख भापने वाले संभल जाते है । हमारे शरीर  का निर्माण पाँच तत्वो  से हुआ  है । अतः यह स्वाभाविक है कि इनमे से किसी के अपनत्व  का संपर्क एक अजीब सा अनुभव ही देगा । 

हम लोको चालको का कार्य स्थान्तरित होते रहता है । कभी इस शहर में तो कभी उधर । यात्री गाड़ी हो तो अनुभव के अवसर बहुत मिलते  है । तरह - तरह के यात्रियो से संपर्क बनते है । हर किस्म के लोग संपर्क में आते है । इस अनुभव और प्रश्नो कि लड़ी उस समय और बढ़ जाती है ,जब किसी बाधाबश गाड़ी देर तक रूक गई हो । यात्री  झुण्ड के झुण्ड लोको के पास आ खड़े होते है । प्रश्न वाचक चेहरे , प्रश्न वाचक शव्द -हमे संयम कि पटरी पर ला घसीटते है । 

लाख करें चतुराई पर विधि कि लिखन्ती को कोई टाल नहीं सका है । अगर ईश्वर है , तो कालनिर्णय का चांस सभी को देते है । कोई जरूरी नहीं कि आप भी इस मत से सहमत हों । उस दिन ऐसा ही कुछ हुआ था । मै अपने को -लोको चालक के साथ सिकंदराबाद आरामगृह में कॉफी कि चुस्की ले रहा था । ठंढ लग रही थी । सबेरे का वक्त था । अभी - अभी बंगलूरू - हजरतनिजमुद्दीन राजधानी एक्सप्रेस को काम करके आयें थे । वि. आर. के. राव ने कहा -मै अपोलो अस्पताल जाकर आता हूँ । आप नास्ता कर लेना । मैंने पूछा - ऐसी क्या बात है ? 

उन्होंने जो बताएं वह इस प्रकार है --
" मेरे सम्बन्धी एक अपार्टमेंट हैदराबाद में ख़रीदे है । उन्होंने  शिफ्ट करने के पहले दूध गर्म और गृहप्रवेश कि पूजा हेतु , गुंतकल से  सपरिवार अपने कार से हैदराबाद आ रहे थे । वे लोग रात को ग्यारह बजे यात्रा शुरू किये । रास्ते में एक बजे कार चालक ने कहा -मुझे नींद आ रही है । एक घंटा सोना  चाहता हूँ । चालक को अनुमति मिल गयी । कार को सड़क के एक किनारें पार्किंग कर सो गया । कुछ आधे घंटे ही हुए होंगे , मेरे रिस्तेदार ने उस चालक को आगे चलने को कहा , क्यूंकि सुबह का मुहूर्त छूट सकता था । 

अल साये हुए चालक और कार चल दी । यात्रा के दौरान कुछ दूर जाने के बाद चालक ने कंट्रोल खो दी और कार ने पलटी मारी । सभी रात  भर घायल अवस्था में कार में पड़े रहे । किसी वाहन चालक या पथिक  ने उनकी सुध नहीं ली । सुबह आस - पास के गाव वालो की नजर पड़ी और उनके मदद से मेरे रिस्तेदार अपोलो में भर्ती है । सभी को गम्भीर चोट पहुंची है । "

जी हाँ । यह घटना पिछले माह कि है । अब वे लोग अस्पताल से डिस्चार्ज हो चुके है । आधा घंटा पहले का निर्णय महंगा पड़ा ? या नियति में यही लिखा था ? या कर्म के परिणाम थे ?या अपार्टमेंट अशुभ था ? जो भी हो हवा और अग्नि में जरूर फर्क होता है । 

Friday, November 22, 2013

राजधानी एक्सप्रेस रुक गयी ।

कभी - कभी जीवन में ऐसा लगता है कि हर चीज और अनुभव सबके बस की नहीं  होती । बहुत सी ऐसी चीजे है , जिन्हे धनवान  नहीं समझ सकते । ठीक वैसे ही धनवानो  की कुछ अनुभव  कमजोर  के पहुँच से बाहर होती है । कुछ समाज या व्यक्ति विशेष असाधारण प्रतिभावान  होते है , पर असुविधा कि वजह से अपनी प्रतिभा को विखेर नहीं पाते । शायद इसी लिए पांचो अंगुलिया बराबर नहीं है और  इसी भिन्नता कि वजह से समाज में संतुलन बना रहता है ?

 लोको पायलटो की जिंदगी भी अजीब सी  होती है । दिन में सोना , रात्रि पहर  जागते हुए कार्य को पूर्ण रूप देना ,दिनचर्या सी बन गयी है । हजारो सिगनलों , सैकड़ो मानव रहित / मानव विहीन समपार फाटको , सर्दी या गर्मी , वरसात या सुखा  , विभिन्न प्रकार के गाड़ियों / इंजनो , रुकन या प्रस्थान वगैरह - वगैरह को अनुशासन  के भीतर रहते हुए पूर्णरूप देना ही तो है लोको पायलट । समाज से दूर , परिवार से दूर बस गाड़ी के यात्रियों को ही परिवार मानकर सतत आगे बढ़ते रहते है । लोको पायलटो का   मुख्य ध्येय  -  अनुशासन में रहते हुए जान - माल की  रक्षा ,  रेलवे और देश की प्रगति में चार चाँद लगाना ही तो है । आप एक क्षण के लिए लोको पायलट बन , इनके जीवन की अनुभूतियों को महसूस कर सकते है । 

लोको पायलटो को  कार्य के समय कई छोटे या बड़े मुश्किलो का सामना करना पड़ता  है । सफलता पूर्वक त्रुटियों को झेल जाना भी एक बड़ी अनुभव होती है । हमने सिनेमा घरो में कई बार देखा होगा कि नायक /नायिका  रेलगाड़ी  में सफ़र कर रहे होते है । कोई छोटी वस्तु / घी के डब्बे / टिफिन बॉक्स को खतरे की जंजीर  से बांध देते है । तदुपरांत रेलगाड़ी  रूक जाती है । रेलगाड़ी के  कर्मचारी अपने निरिक्षण के दौरान इस गलती को देख लेते है और नायक / नायिका को खरी खोटी सुनाते  है । थोड़े समय के लिए  दर्शक हँसे बिना नहीं रह पाते और कुछ ताली तक बजा देते है । जी हाँ यह छवि गृह / सिनमोघरो  के छवि/ चलचित्र  में निर्देशक द्वारा प्रेषित , दर्शको के लिए मनोरंजन के एक मसाले के साधन मात्र होते है । ऐसी घटना वास्तविकता से परे समझी जाती है । लेकिन  -

सभ्य और शिक्षित समाज इस कार्य को कार्यान्वित कर दें , तो आप क्या कहेंगे ? क्या आपने कभी  ऐसी कल्पना कि है ? जी शायद आप को पता नहीं , यह वास्तविक जीवन में भी सम्भव हो  सकता है , जब राजधानी एक्सप्रेस ठहर गयी । कल यानि २१ नवम्बर २०१३ कि घटना प्रस्तुत है । कल मै राजधानी एक्सप्रेस को लेकर सिकंदराबाद जा रहा था । राजधानी एक्सप्रेस सेडम स्टेशन पर रुकी । इसके फर्स्ट क्लास के डिब्बे से एक यात्री उतर गया , जो लोअर बर्थ का यात्री था । राजधानी फिर रवाना हो गयी । कुछ चार / पञ्च किलोमीटर कि यात्रा के बाद किसी ने खतरे कि जंजीर खिंच दी । फिर क्या था राजधानी एक्सप्रेस तुरंत रुक गयी । जाँच के दौरान  पता चला कि फर्स्ट क्लास के कोच में उप्पर बर्थ का यात्री लोअर बर्थ में सोने के लिए निचे उतरने के लिए इस जंजीर का सहारा लिया था । शायद वह यह नहीं समझ पाया कि यह कोई साधारण जंजीर नहीं है  बल्कि खतरे की जंजीर है । अनपढ़ की गलती क्षम्य है पर सभ्य और पढ़े - लिखे कि ? जब उसकी गलती से राजधानी एक्सप्रेस रुक गयी । 

Wednesday, October 23, 2013

ऐसा होता है अनुशासन

अनुशासन की बात आते ही शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती है । मुख्यतः  जो इसके आदी नहीं है । पर अपने आप में अनुशासन बहुत ही लाजबाब चीज है ।जिन्हें यह प्रिय है , उनके लिए देव तुल्य  । इसके परिणाम उस समय आश्चर्य की सीमा को छू लेती  है , जब दोनों ही इसके प्यारे/ अवलंबी हो । इसके परिणाम इसके सकारात्मक / नकारात्मक इस्तेमाल पर निर्भर करते है ।

 हां यह जरूर पथ में कांटे / दुश्मनों की संख्या बढ़ा देती है , परन्तु  धैर्यवान उच्चाई को छु लेते है और कायर परिणाम की गिनती करते हुए हथियार डाल देते है । कभी ऐसा भी होता होगा जब  अनुशासित व्यक्ति अपने आप को भी थोड़े समय के लिए सोंचने के लिए बाध्य हो जाए ।वास्तव में ऐसा  होता भी है । किन्तु यह सत्य है कि अनुशासन स्वयं को फायदा और इसका दुरुपयोग दुसरे को फायदा पहुंचता है । 

हम रेलवे के लोको पायलटो की कहानी बहुत करीब से  इससे  जुडी हुई  है । इस अनुशासन के सहारे गाड़िया अपने मंजिल तक सुरक्षित पहुंचती है । इसी लिए कहते है - अनुशासन हटी , दुर्घटना घटी । मेरा निजी अनुभव  है कि अनुशासन प्रिय लोग दिल और दिमाग से कठोर होते है । कभी - कभी ऐसे कदम उठाने पड़ते है , जिसे याद करके अकेले में आंसू निकल आते है । 

एक वाकया प्रस्तुत है । घटना उस समय की है जब मेरी पोस्टिंग यात्री लोको चालक के रूप में पकाला में हुई  थी । सांय काल का समय । katapadi  से तिरुपति पैसेंजर ट्रेन लेकर जाना था । ड्यूटी में आ गया था । katapadi का अगला स्टेशन रामापुरम  है । जो करीब १५ किलोमीटर दूर है । मुझे ट्रेन प्रस्थान की आथारिटी दी गयी । अथारिटी एब्नार्मल थी यानी पेपर लाइन क्लियर और सतर्कता आदेश के साथ , क्युकी katapadi स्टेशन मास्टर का संपर्क रामापुरम  मास्टर से नहीं हो पा रही  थी  । सतर्कता आदेश को पढ़ा , जो मुझे १५ किलोमीटर की गति से katapadi से रामापुरम जाने की अनुमति दे रहा था । कुछ समय के लिए अवाक् हो गया । 

katapadi दक्षिण और दक्षिण मध्य रेलवे की सीमा है । katapadi दक्षिण रेलवे के अंतर्गत पड़ता है । सीएमसी /वेल्लोर जाने के लिए यही उतरना पड़ता है ।मै सतर्कता आदेश के साथ स्टेशन मास्टर के ऑफिस  में गया और कहाकि - हमारे रेलवे में एब्नार्मल परिस्थिति में १५ किलोमीटर की सतर्कता आदेश नहीं दी जाती है । रामापुरम की दुरी १५ किलोमीटर से ज्यादा है । १५किलोमीटर की गति से रामापुरम पहुँचाने में बहुत समय लगेगा । मास्टर ने जबाब में कहा - मै कुछ नहीं कर सकता । हमारे यहाँ जो नियम है , उसी के मुताबिक सतर्कता आदेश दिया हूँ । अब मै निरुत्तर हो गया ।

 मै भी दृढ अनुशासन प्रिय । मैंने दृढ निश्चय कर ट्रेन को अनुशासित रूप से चालू कर दिया । रामापुरम तक १५ किलोमीटर की  गति से चल कर१५ मिनट के रास्ते को  ७५ मिनट में पूरा करते हुए पहुंचा । इधर हमारे मंडल में खतरे की घंटी बजने लगी । आखिर ट्रेन किधर है ? रामापुरम में मदुरै एक्सप्रेस एक घंटे से लाइन क्लियर के इन्तेजार में खड़ी थी । रामापुरम पहुंचते ही मास्टर ने लेट आने की जानकारी मांगी । मैंने पूरी कहानी कह दी । सभी आश्चर्य चकित रह गए । सभी ने मानी - ऐसा होता है अनुशासन । 

Monday, September 23, 2013

पूर्वाभास

हमारे जीवन में सोते वक्त स्वप्न और जागते वक्त कल्पनाएँ -प्रतिक्षण कुरेदती  रहती है । कोई स्वप्न देखना नहीं चाहता  , तो कोई कल्पना मात्र  से भी डरता है । फिर भी हमारे हाथ पैर इन्हें साकार करने हेतु प्रयत्नशील रहते है । हमारे मष्तिष्क की उपज है ये  स्वप्न और कल्पनाएँ । स्वप्न में भयावह दृश्य हो  सकती है , आनंदायी भी और उमंग भरी भी ।  पर कल्पनाएँ  जागरुक और सुखमय ही कर जाती  है । 

स्वप्न और कल्पनाएँ दोनों  मिलकर एक हकीकत को रंग देती है । स्वप्न और कल्पनाएँ निजी सम्पदा है । निजी प्रयत्नों से कामयाब होती है । बोतल की नीर , बोतल से ही निकलेगी , घड़े से नहीं । दुनिया में बहुत कम लोग होंगे जिन्हें स्वप्न या कल्पनाओ की अनुभूति न हुई   हो । कभी - कभी ये सच का रूप भी  लेती है । मंथन से अमृत निकल सकता है , तो जिज्ञासा से सच्चाई क्यों नहीं ? तभी तो कहते हुए सुना गया है -जिन   खोजा तिन पाईया ।  

जब स्वप्न और कल्पनाओ की बातें हो ही  गयी तो एक उदहारण भी प्रस्तुत है -
           मै वाड़ी में  था और मुझे उस  दिन शिर्डी साईं नगर एक्सप्रेस लेकर गुंतकल आना था । दोपहर को भोजन के उपरांत  सो गया । मुझे एक स्वप्न आया कि  मै गेंहू पिसवा  रहा हूँ , पर गेंहू गीला हो जाता था । सो कर उठने के बाद परेशान हो गया ।दिमाग चलायमान हो चूका था ।  किसी अशुभ घटना के संकेत थे क्युकी कहते है शिरडी में हैजा की बीमारी के समय , साईं बाबा जी ने चाकरी में गेंहू की पिसाई की थी और औरतो से कहाकि  गाँव के चारो ओर सीमा पर छिड़क दें । सूखे आटा को सीमा पर छिड़कने से हैजा से मुक्ति मिली थी । पर यहाँ तो आटा गिला हो रहे थे ?

ड्यूटी में पौने पांच बजे शाम को ज्वाईन हुआ  । मिसेस जी का  फ़ोन काल आया । उन्होंने सूचना दी कि मिनी के सास की मृत्यु हो गई  , जो बनारस में ब्रेन फीवर की वजह से भरती थीं । मिनी मेरे बहन की बड़ी बेटी है ।  सूखे आटे कि जगह यह है गीली आटे का स्वप्न । स्वास्थ्य के वजाय अस्वस्थ सूचना ।  जी ऐसी कितने पूर्वाभास हमें होते रहते है । सिर्फ हम उन्हें हल्के में ले लेते है । अगर उनकी समीक्षा की जाये , तो जरूर निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है । फिर भी जरूरी नहीं कि आप मुझसे सहमत हों । 

Saturday, August 24, 2013

एक लघु कथा - पिघलती ममता

मुंशी प्रेमचंद पुस्तकालय -अपने  आप में एक अलग ही महत्त्व रखता है । इस पुस्तकालय में  एक साथ  पचासों लोग  बैठ सकते है । शिप्रा एक विदुषी महिला  थी । सामाजिक , राजनितिक , आर्थिक और देश -विदेश की समस्याओ में विशेष रूचि । इस पुस्तकालय के  सभी पाठको में बहुत लोकप्रिय । वह अपने एकलौते पांच वर्षीय पुत्र के  साथ नियमित पुस्तकालय में शरीक होती थी । बहुत ही मृदुल भाषी , शांत स्वाभाव वाली ।  उसका पुत्र भी सभी का प्यारा था । 

एक दिन हरीश ने उनके   पुत्र के सिर पर टोपी  रखते हुए -" टोपी " कह  दिया । शिप्रा के मुख की रेखाए तन गयी । माँ का कोमल दिल , पुत्र के प्रति इस्तेमाल  विशेषण के शव्द से आहत हो गया ।  मर्माहत सा टोपी को दूर फेंकते हुए ,पुस्तकालय से बाहर निकल  गयी । हरीश समझ न सका ? सन्न रह गया । समझ नहीं पाया कि उससे कौन सी गलती हो गयी   है । वैसे टोपी सिर की शोभा और  इज्जत बढाने वाली वस्तु  है । पैर पर थोड़े ही रखी जाती है ? एक माँ की ममता को ठेस पहुंचे , ऐसी  हरीश की इच्छा नहीं थी , महज प्यार से कह दिया था । एक इत्तेफाक था । 

पुस्तकालय में शिप्रा की उपस्थिति दिन प्रतिदिन कम होने लगी । सभी को उसकी कमी खलने लगी थी  । हरीश ने तय किया कि अवसर मिलने पर शिप्रा से गलती के लिए खेद प्रकट करेगा । वह अवसर की  ताक में था । आज पुस्तकालय के सभागार में एक समारोह का आयोजन किया गया था । शायद पुस्तकालय के एक  वार्षिक मैगजीन की लोकार्पण होने वाली थी । हरीश भी उपस्थित था । मैगजीन को आम पब्लिक हेतु लोकार्पित  किया गया । हरीश मैगजीन का मुखपृष्ट देख आश्चर्य चकित हो गया -" मुखपृष्ट पर शिप्रा के पुत्र की तश्वीर छपी थी । "

भीड़ में उसे शिप्रा दिखी । क्षमा हेतु इससे अच्छा अवसर और क्या हो सकता है  । हरीश ने तपाक से कहा - " आप एक श्रेष्टतम माँ है ।" और शिप्रा कुछ कहे , तब - तक वह  आँखों से ओझल हो गया । एक माँ का कोमल मन हर्षित हो उठा ।  शिप्रा के मन में अमृत का संचार हो चूका था । एक माँ की ममता पिघलने लगी थी । वह पुस्तकालय फिरसे गुंजित होने लगा । 

एक शब्द कडुवाहट ,नफ़रत और  प्यार  को  फ़ैलाने के लिए काफी होते है । अंतर उसके उपयोग में है  । इसकी पीड़ा सभी नहीं , कोई माँ  ही समझ सकती  है । 

Friday, August 9, 2013

मृत्यु की बोनस जिंदगी

उस दिन की घटना कैसे भुलाई जा सकती है । हम लोको पायलटो का जीवन ही ऐसा है । रोजमर्रा के किसी भी कार्य की  कोई समय बद्धता नहीं होती । जीवन तो जीवन है , मृत्यु भी हमें अपनो से अलग कर देती है । परिवार से सदैव अलगाव पन  की परिस्थितिया नाना प्रकार की समस्याओ को जन्म देती है । मानसिक कुंठा घेर लेती है । ऐसा ही कुछ , इब्राहीम के परिवार में आज की रात की व्यथा गम की हवा विखेर दी  थी । 

उस लोको पायलट का नाम इब्राहीम था । कुछ ही देर पहले माल गाडी लेकर आयें थे  । रात्रि के साढ़े बारह हुए होंगे । अभी साईन ऑफ भी नहीं कर सके थे  । वाश - वेसिन में हाथ धोते समय , उन्होंने  ह्रदय में दर्द महसूस की  और सीने पर हाथ रख , अचानक फर्श पर गीर पड़े थे  ।

लॉबी में उपस्थित जिन्होंने भी देखा , घबडा ये सा  उस तरफ दौड़े । वह निःसचेत पड़ गए  थे  ।  जिसे जो जान पड़ा , मदद करना चाहा  । किन्तु किसी के वस में कुछ नहीं था । उनके  प्राण - पखेरू उड़ चुके थे । उन्हें  तुरंत पास के स्वास्थ्य केंद्र में  ले जाया गया । डॉक्टर ने उन्हें औपचारिक रूप से मृत घोषित कर दिया । कैसी बिडम्बना थी ,मौत ने उन्हें परिवार के  किसी से मिलने का अवसर प्रदान नहीं किया  था ।  ऐसा लगता है - वह मृत्यु द्वारा दी गयी बोनस की आयु के अंतर्गत जी रहे थे  । वह कैसे ? आयें विचार करें -

एक बार हम सभी लोको पायलट रायचूर रनिंग  रूम में बैठ कर समाचार पढ़ रहे थे ।उस  समय मै सहायक लोको पायलट था । हमारे बिच इब्राहीम जी भी थे । आपसी वार्तालाप और बातो -बात में सर्प का प्रसंग छिड़ गया । किसी ने कहा - इस रनिंग रूम के अन्दर बहुत सांप है , हमें सावधान रहना चाहिए । कईयों ने हामी भरी थी । और यही वास्तविक  सच्चाई भी थी । हमें कभी कभार सांप दिखाई देते थे और केयर टेकर उसे मार डालते थे । इब्राहीम जी  सभी के बातो को सुन रहे थे । सहसा हँसे और बोले - " मै एक बार सांप के मुंह से बच चूका हूँ । अभी बोनस की जिंदगी जी रहा हूँ , अन्यथा कई वर्ष पहले इस दुनिया को  अलविदा  कर दिया होता ।  कभी सोंचता हूँ तो शरीर  में सिहरन दौड़ जाती है , अल्लाह ने मदद की थी । "

हम उस समय रेलवे में नए - नए आये थे । शायद १९८८ की घटना है । हम रनिंग स्टाफ की  कहानी और किस्से सुनने  के बहुत शौक़ीन थे । किसी ने उनसे उस घटना को प्रस्तुत करने के लिए आग्रह कर दिया था । इब्राहीम जी ने कहा कि  एक बार वे इसी रनिंग रूम में अपने बैग को  ,अपने बेड के निचे रख कर सो रहे थे । बैग का जीप खुला हुआ था । आधी रात के बाद whitefield  गुड्स को कार्य करने का काल बुक मिला । मै सोकर उठा और बाहर रखे यूनिफार्म को पहन लिया तथा बैग का जीप बंद कर ड्यूटी के लिए लॉबी में आ गया । लॉबी जाते समय बैग भारी लग रहा था । लॉबी में साईन ऑन किया । गुड्स ट्रेन का चार्ज लिया । ट्रेन चलाकर गुटी जंकशन तक आया । गूटी में साईन ऑफ भी किया  और फिर घर आ गया । 

घर में जब टावेल निकलने के लिए बैग का जीप खोला ,उसमे से सांप के फुफकार की आवाज आई और एक लम्बा सांप बाहर निकलने लगा । घर के अन्य सदस्य अचंभित हो गए । उस सांप को मार दिया गया । मेरी पत्नी ने अल्लाह से दुआ के लिए हाथ ऊपर उठा  लिए और कहने लगी - " अल्लाह का शुक्र है , जो तुमने चलती ट्रेन में बैग नहीं खोले । अन्यथा यह सांप तुम्हे डंस लेता था "  

यह सुन हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा और तरह - तरह के प्रश्न उठने लगे ?

रनिंग रूम में रात के अँधेरे में बैग के अन्दर हाथ डालने पर क्या हो सकता  था ?
लोको के गति के दौरान बैग का जीप खोलने पर क्या हो सकता था ?
रायचूर और गूटी लॉबी के अन्दर बैग खोलने पर क्या हो सकता था ?
घर में अन्य किसी के द्वारा बैग खोलने पर क्या हो सकता था ?

यानी हर परिस्थिति खतरे से खाली नही थी । उनके साथ घटी यह घटना , हमारे शरीर में भी शिहरण पैदा कर देती है । इस नियति के खेल बड़े निराले है । शायद इब्राहीम जी को रेलवे प्रांगन में ही , आखिरी साँस लेनी थी । हम रनिंग स्टाफ की जिंदगी रेलवे के लिए अनमोल और परिवार वालो के लिए आस्था का विषय है । सबसे  ज्यादा विरह - वेदना पत्नी को सहने पड़ते है । जिसकी आँखे हमेशा दरवाजे की ओर एक टक इंतजार में डूबी रहती  है । प्रियतम कब सकुशल घर आयेंगे ?

अल्लाह इस ईद की उपलक्ष में इब्राहीम जी की आत्मा  को शांति दें ।
 


Friday, July 26, 2013

लघु कथा - धीमे चलिए , पुल कमजोर है

कौड़ी के मोल जमीन खरीदकर हीरे के दाम पर  ठेकेदारी बेंची जा रही थी । बड़े ओहदे वाले लाल -लाल हो रहे   थे . नीतीश को अभियंता हुए कुछ ही दिन हुए थे . एक समय था , जब उन्हें बाजार पैदल चलकर ही जाना पड़ता था . आज उसके पास सब कुछ है . दो कारे  , कई दुपहिये और निजी पसंद के बंगले में  कई नौकर चाकर . आस पडोश वाले  शान देख हैरान थे . 


कहते है - जब उसकी नौकरी लगी ,  सभी ने उसकी  उपरवार कमाई के बारे में जानने की कोशिश की थी . नीतीश बहुत इमानदार प्रवृति का था . यह कह कर बात टाल देता की सरकारी तनख्वाह काफी है . साथी कहते कि सरकारी तनख्वाह तो ईद का चाँद है यार . वह झेप जाता था . 


परिस्थितिया बदलती चली गयी . ईमानदारी बेईमानी में बदल गयी . नीतीश  इतना बदल गया कि उसे सरकारी तनख्वाह कम पड़ने लगे . अंग्रेजो द्वारा बनायीं हुयी पुल को तोड़ दिया गया , जिसके ऊपर अभी भी ७५ किलो मीटर की गति से बसे चलती थी . नए पुल का निर्माण किया गया . करोड़ो रुपये लगाये गए . धूमधाम से उदघाटन हुए थे और पुल के दोनों किनारों पर ,एक वर्ष के भीतर ही सूचना बोर्ड लग  गया था . जिस पर लिखा था - 

" धीमे चलिए , पुल कमजोर है "


Thursday, July 11, 2013

अजीब सी है यह शिकायत पुस्तिका ।

 कौन ऐसा होगा जिसे किसी से शिकायत  न होगी ? शिकायत का नाम आते ही हम कुछ दुविधा में पड़  जाते है । जैसे सांप सूंघ गया हो । बहुतो को एक दुसरे की शिकायत करते देखा गया है , परन्तु लिखित शिकायत के नाम पर  खिसक जाते है । आखिर क्यों ?

 शिकायत पुस्तिका और इसके  समक्ष  उत्पन्न होने वाले प्रश्न -

१ . हमें शिकायत करनी चाहिए , पर करते नहीं ।
२. अन्य को परवाह नहीं , मै  ही क्यों मुशिवत मोल लूं ?
३ .दूसरो को भी कहते नहीं थकते  की इससे होगा क्या ? यानी अपरोक्ष रूप से मनाही ।
४. तुम्हे ही इतनी चिंता क्यों है ? बहुत से लोग है जिन्हें यह परेशानी  है । छोडो इस ववाल को ।
५ .मुझे पूरी तरह से लिखने नहीं आता अन्यथा शिकायत कर देता ।
६ मै किसी परेशानी में नहीं उलझन चाहता ।
७ बहुतो को शिकायत बुक कहाँ मिलेगी - की जानकारी ही नहीं होती ।
८ कुछ दफ्तरों में  इस मुहैया नहीं कराया जाता ।
वगैरह - वगैरह

.क्या  हम इतने भीरु और डरपोक हो गए है । कईयों को कहते सुना है , छोडो यार किसे परेशानी मोल लेनी है । वाह कौन सी  परेशानी ...यही  डर तो हमें अव्यवस्था को बढाने  वाले  की  श्रेणी में ला खड़ा करता  है ।आखिर हम जिम्मेदारी और कर्तव्य से कब तक डरते रहेंगे ? कब तक सहते रहेंगे ? इसीलिए कहते है की सारी समस्याओ का  जड़ हम ही है । हम ही है , जो निकम्मों और अयोग्य  लोगो को अपना नेता चुनते है  और बाद में पछताते है। उनके पापो को धोते फिरते है । 

प्रायः सभी सरकारी कार्यालयों में शिकायत पुस्तिका मिल जाएगी । कई पुस्तिका इतनी गन्दी और मैली दिखती  है जैसे दसको तक उसे छुआ नहीं गया हो । चलिए सरकारी महकमे को संतुष्टि मिल जाती है की सब कुछ ठीक है । प्रजा को कोई दुःख या तकलीफ नहीं । जी हाँ यह सच्चाई भी है की कई मामलों में शिकायत कर्ता को भी   परेशानी झेलनी पड़ी ।  थोड़ी सी परेशानी ,  वह भी कुछ खामियों की आपुर्तिवश उतपन्न हुयी हो सकती है । पर ज्यादातर मामलों में शिकायतकर्ता को लाभ ही मिला है ।

अजीब सी है यह शिकायत पुस्तिका । यहाँ एक वाक्या  याद आ गया । जिसे प्रस्तुत कर रहा हूँ । रात्रि का समय । करीब डेढ़ बजे ।एक युवक  रायलसीमा एक्सप्रेस की इंतजार में  प्लेटफोर्म पर चहल कदमी कर रहा था ।ट्रेन आने में काफी समय था अतः वह एक बेंच पर बैठ गया । उसे ख्याल ही नहीं रहा कि बेंच को अभी - अभी पेंट किया गया था । जब तक उसके ध्यान उस तरफ जाते -उसके पेंट और शर्त चिपचिपे और गंदे हो गए थे । उसके हावभाव से लग रहा था कि वह बहुत परेशां है । वह स्टेशन मास्टर के कार्यालय में गया और अपनी आप बीती कह सुनाई । मास्टर ने कहा की आप को बैठने के पहले बेंच को देख लेना था ? कल रेल मंत्री जी आ रहे है , इसी लिए जल्दी में बेंच की पेंटिंग की गयी होगी । मै उस कार्यालय से बात करूँगा । मास्टर ने इसके लिए उस व्यक्ति से क्षमा भी मांगी ।

वह युवक निडर था । उसने शिकायत पुस्तिका मांगी । स्टेशन मास्टर बिना किसी हिचकिचाहट के शिकायत पुस्तिका के लोकेशन को बता दिया , जो उसके कार्यालय में एक कोने में पड़ी हुयी थी । उस व्यक्ति ने शिकत पुस्तिका में अपनी शिकायत को -रेल मंत्री  को संबोधित करते हुए लिखा कि-" आप कल निरिक्षण को आ रहे है , इसी लिए यात्रियों के बैठने के बेंच को किसी ने पेंट किया । मै उस बेंच पर बैठा और मेरे पेंट तथा शर्त गंदे हो गए । आप कार्यवाही करे । "

जी हाँ पाठको । आप को जानकार हैरानी होगी की रेलवे ने उस शिकायत पर उचित कार्यवाही की । जो अपने आप में इतिहास बन गया । उस व्यक्ति के पते पर एक शर्ट  और पेंट की कीमत का ड्राफ्ट भेज गया । दोस्तों यह शिकायत पुस्तिका ही आप का प्रिय दोस्त है । इसका खूब इस्तेमाल करें और इसके मुल्य को समझे । मैंने अपने जीवन में बहुत सी शिकायते की है और फल को भी प्राप्त किया हूँ । फिर कभी और चर्चा होगी आज बस इतना ही ।

(स्थान , स्टेशन और मास्टर को उधृत नहीं किया हूँ । यह जरूरी नहीं समझता । क्षमाप्रार्थी हूँ । ) 


Saturday, June 15, 2013

शिर्डी वाले साईं बाबा



दोनों एक समय  के जिगरी दोस्त थे । बहुत दिनों के बाद एक साथ और परिवार के साथ  मिले थे । वह भी महाराष्ट्र के मशहूर धार्मिक नगर शिर्डी में । दो दिनों का प्रोग्राम था । दोनों छुट्टी पर थे । एक एयर फ़ोर्स में कार्यरत शिव थे , तो दुसरे रेलवे के अधीन महादेव ।  नाम  अलग - अलग , पर अर्थ एक जैसे । यह भी एक इत्तेफाक था । पहले दिन नासिक दर्शन को  गए थे । थकावट में रात गुजरी । सुबह होते ही बाबा के दर्शन करने के बाद , शिर्डी  से प्रस्थान की व्यवस्था हो चुकी थी । 

दुसरे दिन वही हुआ , जो प्रोग्रमित था ।  दोनों दोस्त दोपहर के भोजन के बाद भक्ति निवास में लौट आयें । यही दो कमरे बुक हुए  थे । दोनों  दो बजे रेलवे स्टेशन के लिए रवाना होने वाले थे । शिव की ट्रेन नासिक से थी और महादेव की कोपर गाँव से । अतः शिव ने एक कार को भक्ति निवास में ही बुक कर लिया । कोपर गाँव जाने के लिए कोई साधन भक्ति निवास में उपलब्ध नहीं थे । साईं बाबा के मंदिर के सामने ही कोपर गाँव के लिए साधन मिलते है । 

दोनों के जुदा होने का वक्त आ गया था । भक्ति निवास में शिव अपने परिवार के साथ कार में जा बैठा । महादेव और उनके परिवार वालो ने विदाई हेतु अपने हाथ को हवा में लहराए । तभी महादेव के दिमाग में  एक तरकीब जगी , क्यों न हम सभी  इसी कार में साईं बाबा के मंदिर तक चल चले ? और दो मिनट  एक साथ रहेंगे । शिव ने भी ख़ुशी जाहिर की । महादेव भी परिवार के साथ उस कार में बैठ गया । कार पोर्टिको से बाहर सड़क की ओर चल दी । 

ओ ..ड्राईवर कार रोको ? किसी ने कार ड्राईवर को इशारा करते हुए कहा । ड्राईवर ने कार रोक दी । शायद वह ऑटो वाले थे । उसने ड्राईवर को  मराठी भाषा में कुछ हिदायत दी और न मानने की हालत में सौ रुपये जुरमाना देने को कहा । दस मिनट हो चुके थे । माजरा क्या है ?  जानने के लिए महादेव ने ड्राईवर से प्रश्न किया  । ये लोग दो परिवार को क्यों बैठाये हो -के मुद्दे पर प्रश्न खड़ा कर रहे है । एक ही परिवार को ले जाने के लिए कह रहे है । यह सून कर बड़ा ही ताज्जुब हुआ । ड्राईवर  और महादेव ने उन्हें समझने की लाख कोशिस की और उन्हें बताया गया कि एक परिवार मंदिर के पास उतर जाएगी । किन्तु उन लोगो के कान पर जू तक न रेंगी । उनकी बात न सुनी गयी , तो कार के चक्के की हवा निकाल देंगे । 

मामला गंभीर न हो जाए अतः महादेव  स्वयं परिवार सहित कार से निचे उतर गए और अफसोस के साथ दोस्त को अलबिदा किया । धर्म के स्थल पर यह घोर अन्याय है । महादेव मन ही मन बुद  बुदाये । ऑटो वाले ठीक नहीं कर रहे है । महादेव ने गुस्से के साथ पत्नी से कहा कि हम यहाँ से किसी ऑटो को किराये पर नहीं लेंगे और पैदल ही मंदिर तक जायेंगे । 

पहिये वाली सूट केस और बैग को सड़क पर खींचते हुए मंदिर की तरफ चल दिए , जहाँ से कोपरगाँव की   ऑटो / जीप  मिलती है । ऑटो वाले देखते रह गए । सहसा एक ऑटो आकर उनके समक्ष रूका , जिसे कोई बारह या पंद्रह वर्ष का लड़का चला  रहा था । लडके ने कहा - ऑटो में बैठिये मै मंदिर तक छोड़ देता हूँ । महादेव के मन में गुस्सा था । उसने सीधे इंकार कर दिया । किन्तु ऑटो वाला अपने   जिद्द पर अड़ा  रहा । अंततः महादेव ऑटो में बैठ गया ।



 दो मिनट में मंदिर स्थल आ गया । महादेव ऑटो से उतरने के बाद भाडा देने हेतु अपने पर्स खोलने लगे  । पर ऑटो वाला बिना देर किये , बिना भाडा लिए ही , वहां से  फुर्र हो  गया । जबकि भक्ति निवास से मंदिर तक का ऑटो चार्ज बीस रुपये था । महादेव आश्चर्य चकित थे । भला जिस पैसे के लिए उन ऑटो वालो ने हमे कार से उतरने के लिए विवश कर दिया था , वही बिन भाडा कैसे जा सकते है ? उन्हें समझते देर न लगी । साईं बाबा ने अपने भक्तो को कभी भी उदास नहीं किया है । सभी की बिदाई ख़ुशी से करते है । महादेव ने मन ही मन साईं बाबा को प्रणाम किया । 

ॐ साईं .....ॐ साईं ....ॐ साईं .....

( साथियों ....यह घटना सत्य पर आधारित है । परिवेश वही है , पर नाम बदल दिए गए है । दूर घर बैठे फोन के माध्यम से अपनो से बात चित हो जाती है । क्या यह सत्य नहीं की मंदिर रूपी फोन  के माध्यम  से हमारी आवाज भी ईश्वर तक पहुँच जाती है ?) 

Saturday, May 18, 2013

मेरे नैना ...क्यू भर आयें ?

जीवन से मृत्यु का सफ़र सभी के लिए खुशनसीब नहीं होतें । संघर्ष भरी कड़ी का अंत ही तो मृत्यु  है । इन्होने जीवन को  एक कर्मयोगी की तरह जी थी । ऐसे पुरूष विरले ही देंखे थे , जिन्हें कभी गुस्सा आया हो ? किसी को भी मुस्कुराकर स्वीकार करने की शक्ति इनमे थी । बच्चे हो या नौजवान या हमउम्र ...सभी से हंसते हुए व्यवहार ..गजब से थे । ह्रदय में गुस्से की प्रतिशत नाममात्र भी नहीं । मैंने अपने जीवन का बचपन इनके आगोश में ही  विताएं । मुझे  याद है , एक ..... बस एक  बार थप्पड़ मारे थे , वह भी स्कूल जाने के लिए । पिताजी ऐसे थे , जिन्हें एक भी शत्रु नहीं थे । उनकी सक्सियत विरले ही मिलेगी । खुद हम भी उनके कदमो  पर चलने में असमर्थ है । 

पढ़े नहीं । स्कूल नहीं गए थे । रामायण की चौपाई या दोहें सामने बैठे बच्चो को प्यार से सुनाते  थे । किताबे धीरे - धीरे पढ़ लेते थे । कागजातों पर हिंदी में अपनी हस्ताक्षर कर लेते थे । गाँधी जी को देंखे थे हमें उनके बारे में भी बताते थे । उन्होंने कभी भी पैसे नहीं पूछे । निस्वार्थ व्यक्तित्व के धनी । उन्हें गाय - गरू और खेती बहुत प्रिय थे । जब -तक शरीर में दम थे ,खेती को नहीं छोड़ें । 
उनकी बराबरी करने की शक्ति हम दोनों भाईयो में नहीं है । 

पिछले एक वर्ष से वे कमजोर हो गए थे । दावा -दारू चल रहा था । विस्तर पकड़ लिए थे ।  दिनांक ८ अप्रैल २ ० १ ३ को मेरे दादा जी के छोटे भाई का देहांत हो गया । पिताजी ने  घर के अन्दर से ही उनके पार्थिव शरीर को अंतिम संस्कार के लिए ले जाते समय देखा । वे भाव - विह्वल हो गए ।  " काका मुझे छोड़ कर चले गए । "- कह -कह कर रोने लगे थे । इसके उपरांत पिताजी की तबियत और ख़राब होने लगी । खान - पान बंद होने लगे । सभी को आशा की किरण कम नजर आने लगी । मुझे इसकी सूचना मिली । 2 3 अप्रैल 2 0 1 3 को बछिया के पूंछ पकडाने और उसको ब्राह्मण को दान देने की विधि संपन्न कराई गयी । इसके बाद उनकी आँखे और बात - चित बंद हो गयी । 

इस गंभीर समाचार के बाद मैंने अपनी यात्रा शुरू कर दी । 2 5 अप्रैल 2 0 1 3 को ट्रेन पकड़ी । गुंतकल से बलिया जाने में कम से कम 4 8 घंटे लगते है । इधर सभी परेशां थे क्यूंकि उनके काकाजी का क्रियाकर्म 2 5 /2 6 अप्रैल 2 0 1 3 को होनी थी । डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए थे । यात्रा के दौरान हर घडी की खबर मुझे दी जा रही थी । 2 6 अप्रैल 2 0 1 3 को इलाहबाद पहुंचा । देखा -मोबाईल का स्क्रीन क्रैक हो गया था । मन में डर पैदा हो गया । वातानुकूलित डिब्बे में अपने बर्थ में मुंह छुपा कर रो दिया था । 

शाम को साढ़े छह बजे बलिया पहुंचा । मेरे बहनोई मुझे लेने के लिए आयें । घर पहुँचाने में बस आध घंटे की दुरी बाकी थी । तभी बहनोई की मोबाईल बजी । बहन का फोन था । फोन रखते ही उनकी आँखे भर आई । माजरा समझते देर न लगी । पिताजी जी मुझसे मिले वगैर प्रस्थान कर चुके थे । रात का अँधेरा , चारो तरफ फैला हुआ था । जो उत्तर - प्रदेश की उन्नति का गवाह था । घर में कदम रखते ही माँ , बहन और अन्य सभी रो पड़े । मै  पिताजी के पार्थिव शरीर से चिपक कर रोने लगा । माँ सुध खोये जा रही थी । अपने ऊपर कंट्रोल किया और माँ को सान्तवना दी की आप के सामने अभी मै हूँ । आप निः फिक्र रहे । 

कितनी विडम्बना थी की 2 5 /2 6 अप्रैल 2 0 1 3 को जब -तक उनके काकाजी का क्रिया कर्म और भोज की प्रक्रिया चली  , उनके प्राण नहीं निकलें ।शायद  पिताजी की आत्मा अपने काकाजी  के रस्म में खलल नहीं डालनी चाहती थी  । सभी कह रहे थे की अंतिम क्षणों में तीन बार भगवान का नाम लिए थे । दुसरे दिन 2 7 अप्रैल 2 0 1 3 को पिताजी के पार्थिव शरीर को अग्नि के सुपूर्त कर दिया गया । कईयों की इच्छा गंगा में परवाह करने की थी । किन्तु माँ ने इच्छा जाहिर कि  की  हमारे पुरखे जिस जगह अग्नि को सुपुर्द हुए है  , वही इनका भी संस्कार होगा । माँ की इच्छा भला कौन टाले  ?  ज्येष्ठ पुत्र के नाते मुझे ही मुखाग्नि देनी पड़ी । बाकी सभी क्रिया कर्म गरूण पुराण के अनुसार पूर्ण हुए । 

कुछ सार्थक मुहूर्त होते है । जो कुछ न कुछ कह जाते है । सभी को इस मृत्यु रूपी सच्चाई का सामना करना है । दुनिया से जाने वाले , जाने चले जाते है कहाँ ? बस अपने कर्मो के पद छाप छोड़ जाते है । 


                                             मेरी रेलवे की नौकरी दिनांक - 2 6 जून 1 9 8 7 । 
                                             मेरे दादाजी की मृत्यु दिनांक - 2 6  जून 1 9 9 6 । 
                                            मेरे पिताजी की मृत्यु दिनांक -2 6 अप्रैल 2 0 1 3 । 
                                             "--------------------------- "-2 6 .                    ?

जीवन की सबसे बहुमूल्य समय गवा दिया था । पिताजी का अंतिम आशीर्वाद से वंचित रहा । यह हमेशा ही खलेगा । मेरे नैना  फिर भर आयें ....फिर भर आयें ......



Friday, April 12, 2013

एक लघु कथा --माँ की ममता पर प्रहार |

लक्षम्मा  झोपड़ी में बैठी बी. .पि.एल चावल के कंकडो को चुन रही थी | जीर्ण शीर्ण सी झोपड़ी और वैसे ही  अंग के चिर  | फिर भी सूर्य की किरण का चुपके से झोपड़ी में आना , उस कड़वी ठण्ड और बरसात  से बेहतर लग रही  थी |

  " लक्षम्मा ..वो लोग आये है |" - उसका पति वीरन्ना बोला | लक्षम्मा धीरे से मुड़ी , उसके मुख पर भय  की रेखाए और शरीर में सिहरन दौड़ गयी | उसके मुख से शव्द नहीं निकल रहे थे  | वश केवल  - "  नहीं  " शव्द ही निकल पायें | देखो ..हमारी  दिन - दशा ठीक नहीं है | चार वेटिया है | जीना  दूभर हो गया है | ऐसे कब तक घुट - घुट कर  जियेंगे | वैसे भी अभी तीन और है |  लक्षम्मा जब - तक कुछ और कहे  , वीरन्ना ने सबसे छोटी दो वर्ष की  विटिया  को उसके नजदीक से खिंच लिया , जो माँ से चिपटी हुयी गहरी नींद में सो रही थी |

उन  व्यक्तियों में से एक  ने वीरन्ना के हाथो  पर  एक नोट का  बण्डल  रखते हुए बोला  - "  गिन लो , पुरे पांच हजार है | " फिर छोटी बिटिया को एक बिस्कुट का पैकेट पकड़ा दिए और वह ख़ुशी से खाने लगी | चलते है ! कह कर उन्होंने छोटी विटिया को गोद में उठा  आगे बढ़ गए  | लक्षम्मा दरवाजे पर खड़ी.. बाएं हाथ से साडी के पल्लू को मुह पर रख ली और दाहिने हाथ को आगे बढ़ाई...जैसे कह रही हो - नहीं .. रुक जाओ ...मेरी विटिया मुझे वापस दे दो | धीरे - धीरे वे दोनों व्यक्ति आँखों से ओझल हो गए |

लक्षम्मा के दोनों आँखों के कोर आंसुओ से भींज गएँ थे  | मुड़ कर पीछे की ओर  देखी | उसका निर्मोही  मर्द पैसे गिनने में व्यस्त था | अचानक वह बोला - ""  अरे ..ये तो पांच सौ कम है और जल्दी से  उनके पीछे दौड़ पड़ा | लक्षम्मा धम्म से जमीन पर बैठ  गयी ..इस आश  में की अब  उसकी बिटिया  वापस आ जाएगी ........

Saturday, March 30, 2013

धोती , कुर्ता और टोपी |

ये भाई जरा देख के चलो 
दायें  भी नहीं  , बाएं भी ,
आगे भी नहीं ...  पीछे भी 
ऊपर भी नहीं  , निचे भी | यानी चारो तरफ से सतर्क |
 या 
चाँद न बदला , सूरज न बदला ...पर 
कितना बदल गया इन्सान ?

जी | सही  भी है | हर क्रिया के पीछे प्रतिक्रिया छिपी होती है | बहुत से जिव - जंतु  घास खा सकते है | घास खाने वाले अपने अंग से दूध विसर्जित कर सकते है | जो किसी दैविक शक्ति से कम नहीं | मानव वर्ग  सुन्दर से सुन्दर खाद्य सामग्री  खाकर भी नमकहराम हो जाते है | उनके द्वारा विसर्जित तत्व अनुपयोगी साबित होते  है | थोड़े समय के लिए सोंचे - दुनिया के सभी मानव श्रेणी   एक जैसी  होते तो क्या होता  ? क्या हम उंच - नीच , अल्प - ज्यादा  आदी के अंतर समझ  पाते   ? बड़ा ही कठिन होता | 

समानता में विखराव पण भी लाजमी है | यही वजह है कि हर व्यक्ति एक ही रंग  या एक ही आकार - प्रकार  व् पसंद  वाले नहीं होते | सभी के अंगो से खुशबु( यश ) नहीं निकलती | पर यह सही है कि मानव के कार्यकलाप , गतिविधिया , हाव  - भाव और आँखों की कलाएं ....उनकी पोल खोल देती है | या यूँ कहे कि सभी क्रियाएं  मानव के दर्पण है | जो कभी झूठ नहीं बोलते  | तिरछी आंखे , पलट -पलट  कर  देखना , अंगो को सिकोड़ लेना , गले लगा लेना ,सिर पर हाथ रखना वगैरह - वगैरह बहुत  से अनगिनत शव्द है | जो राज को  छुपाने नहीं देते  |

कहते है -हमारे पूर्वज असभ्य और अशिक्षित थे | जंगलो और पहाड़ो  में निवास करते थे  |  असभ्यता की जंजीरों में जकडे हुए , जीवन को जीते हुए ..सभ्यता के राह पर चल दिए | कहते है आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है | सब कुछ बदलने लगा , मानव की आवश्यकता के अनुरूप  | धीरे - धीरे बदलाव आये | आग के से लेकर वायुयान तक के अविष्कार हुए | ध्वनि तेज हुयी  | शर्म और हया की अनुभूति धागे और कपड़ो को विस्तार दिए होंगे  |  कपडे की अविष्कार  की वजह तन को ढकना और सुरक्षित रखना  ही था ,आज -कल की तरह  नुमयिस नहीं | प्राकृतिक आपदाएं और अलग - अलग प्राकृतिक आवोहवा ने सूक्ष्म , पतले और कोमल कपड़ो को  जन्म दिए  |

 मानवीय गुण   और व्यवहार में विकास |  रंगों के समागम और भेद  | रंगों से पहचान  बढ़ी होगी | गेरुवे , काले  , सफ़ेद  और रंगविरंगे परिधान -व्यक्ति के  व्यक्तित्व को उजागर करने के माध्यम बने  होगे | गेरुवे सन्यास , पुजारी ,काले विरोधक और सफ़ेद सादगी की पहचान बनी होगी | इस संसार को वक्त के थपेड़ो का शिकार होना पड़ा ,जो बदलाव के कारन बने   | फिर भी आज भारतीय संस्कृति में बहुत कुछ है सुरक्षित है , जो वक्त के थपेड़ो को झेल गया , उसमे किसी प्रकार की बदलाव नहीं आई  | 

भारतीय संस्कृति की धरोहर और  मिसाल दुनिया में कहीं  नहीं मिलती | मनुष्य के रहन - सहन और  पहनावे बदलते गए | आज हमारे सामने रंग - विरंगी दुनिया खड़ी है |  धोती ज्यो की त्यों हमारे सामने अडिग खड़ी है | जी हाँ ...धोती - कुरते और साडी दुनिया के किसी और छोर में विरले ही मिलते होंगे , अगर मिल भी गएँ , तो भारतीय मूल में ही होंगे | एक नारी के लिए उसके साडी की खुब सुरती नायब है |साडी में नारी की आभा खिल उठती है | वह भी सिर्फ  भारतीय नारी की  | साडी  नारी के  व्यक्तिव में निखार  और सादगी लाती  है | मजाल है जो कोई अंगुली उठा के देखे ? किसी विदेशी को साडी पहना कर देखे -आप हँसे न रह पाएंगे | भारतीय नारी की अस्मिता को ढंकती है --यह भारतीय सांस्कृतिक साडी | पर दुःख है की यह जिसके लिए निर्मित हुयी  थी वह भी समय के साथ बदल गयीं  | अपनी संस्कृति और धरोहर को छोड़ , हम पाश्चात्य के पीछे दौड़ने लगे  | जरूरत से ज्यादा नकलची बन बैठे  |

 किन्तु हमारी भारतीय  संस्कृति और यहाँ के  संस्कार इतने  कमजोर नहीं है , जो इतनी आसानी से बदल जाती  | आज भी देश के कई क्षेत्रो में धोती - कुरते वाले मिल जायेंगे | जो एक महान देश के महान संस्कृति की परिचायक है |  इसका सफ़ेद  रंग सदाचार , सदगुण के धोत्तक  है , अपवाद सवरूप कुछ होंगे जो इस पहचान को मिटटी में मिला रहे है , फिर भी हमारे भारतीय संस्कृति में   धोती की गरिमा अवमुल्य  है | शव्दकोश में धोती के पर्याय शव्द नहीं है | इतनी मजबूत है यह हमारी धोती | आज भी इस  वस्त्र को धारण करने वाले अधिक आदर के पात्र होते है | अतः हम कह सकते है कि हमारे  पहनावे , हमारे आकृति को बुलंदियों पर ले जाते है  | 

एक वाकया याद आ गया , जो प्रासंगिक है , प्रस्तुत है |  वर्ष १९८८ -बंगलूर में गया हुआ था | उस समय जींस - पेंट का बाजार जोर लिए हुए था | जवान था | कुछ वर्ष पूर्व ही शादी हुयी थी | दोस्तों ने जोर दी एक सेट ले लो | एक जींस और टी - शर्ट खरीद ली | उस वक्त करीब सौ रुपये लगे  | दुसरे दिन पत्नी के समक्ष पहन खड़ा हुआ |  घर में बड़े मिरर नहीं थे , जो अपनी तस्वीर देख लेता  | अपनी तस्वीर को दूसरों  के आँखों में देखने पड़ते थे |  जो प्राकृतिक ऐनक हुआ करते थे | पहले पत्नी की प्रमाणिकता जरूरी थी | पत्नी ने मुह विचका लिए | कुछ नहीं बोली |  संसय में झेप  गया | अरे भाग्यवान  कुछ तो बोलिए  ? क्या बात है ? पत्नी ने बहुत ही साधारण सी जबाब दी -" आप के  व्यक्तित्व में नहीं खिलती है | " . ओह ये बात है | जींस पेंट और टी-शर्ट निकाल फेंका | जी यह भी सत्य है कि आज - तक  उधर मुड़कर नहीं देखा | भाई को दे दी | वह भी पहनने से इंकार कर दिया | आज भी वह सेट माँ के कस्टडी में ,  माँ के प्यारे बॉक्स वाली अजायब घर  में बंद है |

ये मेरे अपने विचार है , आप के अपने - अपने विचार व् भाव अलग - अलग हो सकते है | सभी स्वतंत्र है | इस लेख / पोस्ट का मतलब  किसी के वैभव / पसंद को ठेस पहुँचाना नहीं है | हमारे संस्कार अटल है | हमारी संस्कृति अटल है | तभी तो धोती - कुरता के ऊपर इस टोपी की जादू नहीं  चली  | भारतीय संस्कृति हमारी धरोहर है | इसे बचाए रखना हमारा परम कर्तव्य है |


Monday, March 4, 2013

अंक की बिंदिया

कहते है -जो होनी है , वह जरूर होगी | जो हुआ , वह भी ठीक  था  | अथार्थ हर घटना के पीछे कुछ न कुछ कारण होते ही है | पछतावा ,मात्र संयोग रूपी घाव ही है | घटनाओं के अनुरूप सजग प्रहरी , कुछ न कुछ विश्लेषण निकाल  ही लेते है | जो मानव को उसके शिखर पर ले जाने के लिए पर्याप्त होती है | हमें इस संसार में    विभिन्न  परीक्षाओ से गुजरने पड़ते है ,उतीर्ण या अनुतीर्ण , हमारे कर्मो की देन है | 

मन की अभिलाषाएं -असीमित  है | इस असंतोष की  भंवर में जो भी फँस गया , उसे उबरने की आस कम ही होती है | संतोष ही परम धन है | मैंने  अपने  जीवन में सादा  विचार और सादा  रहन - सहन को अहमियत दी है | सदैव पैसे अमूल्य ही रहे है | यही वजह था की उच्च शिक्षा  के वावजूद भी १९८७ में फायर मेन के तौर पर रेलवे की नौकरी स्वीकार की थी | वह एक अपनी  इच्छा थी | उस समय की ट्रेनों को देख मन में ललक होती थी , काश मै भी ड्राईवर होता | किन्तु वास्तविकता से दूर | मुझे ये पता नहीं था कि फायर मेन को करने क्या है ? ड्राईवर का जीवन कितना दूभर है ?

इस नौकरी में आने के बाद , इसकी जानकारी मिली | स्टीम इंजन के साथ लगना पड़ा था | कठिन  कार्य | श्रम करने पड़ते थे | इंजन के अन्दर कोयले के टुकडे को डालना , वह भी बारीक़ करके | कभी - कभी मन में आते थे कि नाहक प्रधानाध्यापक की नौकरी छोड़ी | चलो वापस लौट चले ? पर  दिल की  ख्वायिस और  इच्छा के आगे  घुटने टेकने पड़े थे | मनुष्य उस समय बहुत ही दुविधा  का शिकार हो जाता  है , जब उसके सामने  बहुत सी सुविधाए और अवसर के  मार्ग उपलब्ध हो  |    

मेरे लिए गुंतकल एक नया स्थान था |  मैंने अपने जीवन में इस जगह के नाम को  कभी नहीं सुना था | भारतीय मानचित्र के माध्यम से  -इस जगह को खोज निकाला  था | वह भी दक्षिण भारत | एक नए स्थान में अपने को स्थापित करने की उमंग और आनंद ही कुछ और होते  है | बिलकुल नए घर को बसाना , अपनी दुनिया और प्यार को संवारना  |  बिलकुल एक नयी अनुभव | एक वर्ष के बाद ही पत्नी  को साथ रख लिया था | बिलकुल हम और सिर्फ हम दोनों , इस नयी जगह और  नयी दुनिया के परिंदे | कोई संतान नहीं | नए जीवन की शुरुआत और अपने ढंग से सवारने में मस्त थे | उस समय की  कोमल और अधूरी यादें मन को दर्द और  प्रेरणा मयी जीने की राह प्रदान करती   है | 

उस दिन की काली कोल सी  , काली भयावह रातें  कौन भूल सकता है | जो ड्राईवर या लोको पायलटो के जीवन का एक अंग है | भयावह रातें , असामयिक परिस्थितिया , अनायास  दर्द ही तो उत्पन्न  कराती है | परिजनों से दूर , सामाजिक कार्यो से विरक्तता , वस् एक ही दृष्टि सतत आगे सुरक्षित चलते रहना है और चलते रहने के लिए सदैव तैयार बने रहो  | हजारो के जीवन की लगाम इन प्यारी हाथो में बंधी होती है |

 उस दिन मै एक पैसेंजर ट्रेन ( स्टीम इंजन से चलने वाली  ) में कार्य करते हुए , हुबली से गुंतकल को आ रहा था | संचार व्यवस्था सिमित थी  | संचार को गुप्त रखना भी एक मान्यता थी | रात  के करीब नौ बजे होंगे ,गुंतकल पहुँच चुके थे | शेड में साईन ऑफ करने के लिए जा रहा था | सामने पडोसी महम्मद इस्माईल जी ( जो ड्राईवर ट्रेंनिंग स्कूल के इंस्ट्रक्टर भी थे ) को देख अभिवादन किया | साईनऑफ हो गया हो तो हाथ मुह धो लें - उन्होंने मुझसे कहा  | यह सुन दिल की धड़कन बढ़ गयी | आखिर ये ऐसा क्यूँ कह रहे है ? आखिर इस वक़्त इनके यहाँ आने की वजह क्या है ? मन में तरह - तरह की शंकाएं हिलोरे  लेने लगी | मैंने उनसे पूछ - अंकल क्या बात है ? उन्होंने कहा - कोई बात नहीं है , आप की पत्नी की  तवियत ठीक नहीं है | वह अस्पताल में भरती है |

अब हाथ - मुहं कौन धोये | तुरंत अस्पताल को चल दिए | अस्पताल बीस मीटर की दुरी पर ही था | महिला वार्ड में पत्नी -बिस्तर पर लेटे हुए थी | पास में ही महम्मद इस्माइल जी की पत्नी खड़ी थी | उनके चेहरे पर भी दुःख के निशान नजर आ रहे थे  | पत्नी मुझे देख मुस्कुरायी और धीमे से हंसी | जैसे कह रही हो , मेरी ही गलती है | मै दृश्य को समझ चूका था | एक पूर्ण  औरत की ख़ुशी और उसके अंक  की पहली बिंदी गिर चुकी थी | आँखों में पानी भर आयें | मेरे आँखों में पानी देख पत्नी के हौसले भी ढीले पड़ गएँ , उसके भी  आँखों में आंसू भर आयें  |  दिल के गम को बुझाने के लिए , आंसू की लडिया लगनी वाजिब थी | महम्मद इस्माईल की पत्नी दोनों को संबोधित कर बोलीं - आप लोग दुखी मत होवो , घबड़ाओ मत , अभी जीवन बहुत बाकी है | 

एक दूर अनजान देश में , जहाँ अपने करीब नहीं थे , परायों ने अपनत्व की वारिस की | हम अलग हो सकते है , पर अगर दिल में थोड़ी भी  मानवता है  , तो हमें नजदीक खीच लाती  है | उस समय की असमंजस भरी ठहराव , दृढ संकल्प और कुछ कर सकने की दिली तमन्ना , आज उपुक्त परिणाम उगल रही  है | आज हम दो और हमारे दो है | फायर मेन से उठकर सर्वोच शिखर पर पहुँच राजधानी ट्रेन में कार्य करने की इच्छा पूर्ण हुयी है | आज अनुशासन भरी जिंदगी , एक उच्च कोटि के अभियंता से ऊपर  सैलरी  और जहाँ - चाह  वही राह के मोड़ पर खड़ी जिंदगी , से ज्यादा जीवन में और कुछ क्या चाहिए  ?

 अपने लगन और अनुशासन के बल पर जीवन जीना और इसके अनुभव की खुशबू ही  अनमोल है | आयें हम सब मिल कर , अनुशासन के मार्ग पर चलते हुए , एक नए भारत की सृजन करें | जहाँ भ्रष्टाचार का नामोनिशान न हो | 

Thursday, June 28, 2012

सिल्वर जुबिली समारोह -1987 की मार्मिक यादें

जीवन में  संघर्ष और उल्लास का अंत नहीं है ! जो जीता वही  सिकंदर ! भावनाए उमड़ती है , स्वप्न आते है , परछाईया साथ देती है किन्तु स्पंदन के साथ ही परिवर्तित हो जाती है ! हवा स्पर्स करती हुयी आगे बढ़ जाती है ! पीछे मुड़  कर नहीं देखती ! वस् यादें रह जाती है ! संजोये रखने के लिए ! कभी - कभी चेहरे  की झुर्रिया देख मन व्याकुल हो जाता है !


25 जून और 26 जून 2012 , मेरे लिए बहुत कुछ लेकर आया ! 25 जून को लोको पायलटो और उनकी परिवार के सदस्यों ने मंडल रेल प्रबंधक कार्यालय के समक्ष धरना दिया ! जो मूल भुत सुबिधाओ और अनुशासन की मांग पर केन्द्रित था ! वही यह दिन मेरे कैरियर के पच्चीसवे वर्ष का अंतिम दिन था ! एक  लम्बी अंतराल और देखते - देखते दिन  निकल गए  ! सोंचने पर मजबूर होना पड़ा , क्या खोया और क्या पाया !

मेरे बैच  के दोस्तों ने सिल्वर जुबिली मनाने का प्रस्ताव रख दिए ! फिर क्या था -26 जून 2012 को इस प्रोग्राम को अंजाम मिल गया ! दो -तीन साथियो  की कड़ी मेहनत के बाद रेलवे इंस्टिट्यूट में इस प्रोग्राम को सफलता पूर्वक आयोजित किया गया ! यह प्रोग्राम सुबह आठ बजे से शुरू होकर रात्रि के साढ़े दस बजे समाप्त हुआ !

हमसभी 1987 में अपरेंटिस फायर मेन " ये " ग्रेड में ज्वाइन किये थे ! उस समय स्टीम  लोको चलती थी ! नए - नए थे ! सभी के अन्दर उल्लास भरे हुए थे ! जिधर छुओ उधर कालिख , तेल ! दो वर्ष ट्रेंनिंग करनी पड़ी थी ! इसी दौरान सभी स्टीम लोको धीरे - धीरे गायब हो गए ! पहले तो ऐसा लगा की नौकरी छोड़ कर भाग जाए , किन्तु ड्राईवर बनने की तमन्ना दिल में उछाले ले रही थी ! प्रायः सभी साथी  पदोन्नति करते हुए लोको इंस्पेक्टर / क्रू कंट्रोलर /ऑफिस मैनेजर /लोको पायलट ( मेल / एक्सप्रेस) वगैरह तक कार्यरत  है ! किसी ने भी ऑफिसर बनने की इच्छा नहीं जताई और न बने  ! उसमे मै  भी एक हूँ !

सभी को समय रहते ही निमंत्रित कर दिया गया था ! हम कुल 34 थे !  20 साथी ही अपने परिवार के साथ शामिल हुयें ! दो साथी इस दुनिया में नहीं रहे ! उनके याद में, श्रधांजलि हेतु ,  दो मिनट का मौन  रखा गया ! सुबह की शुरुआत   दक्षिण भारतीय इडली , दोसे , वडा  चटनी और  साम्भर के नास्ते  से शुरू हुआ ! दोपहर का मेनू बड़ा ही स्वादिस्ट - चिकन , मटन,  रोटी  हलीम , ब्रिंजल करी , रायता , ice  cream ,सलाद तले  हुए  चावल ,  वेज कुरमा  वगैरह - वगैरह ! सभी की हालत देखते बनती थी  , क्या खाएं न खाए की चिंता !सब कुछ स्वादिस्ट ! रात का भोजन बिलकुल शाकाहारी ! रोटी चावल दाल रसम साम्भर पापड़ दही केला  आदी ! मनोरंजन के लिए आर्केस्ट्रा का इंतजाम ! बच्चे और कई साथियों ने नृत्य कर इसके लुत्फ लिए !छोटा सा शहर , किन्तु मेट्रोपोलिटन के इंतजाम , किसी को किसी तरह की कमी महसूस नहीं हुयी !


 जो भी हो यह सिल्वर जुबिली एक याद ले कर आई और यादगार बन कर चली गयी ! 25 को पच्चीसवे का अंत और 26 को छब्बीसवे की शुरुआत अपने आप में एक अर्थ छोड़ चली गयी  !सभी परिवार एक दुसरे से मिलकर अत्यंत खुश थे !सभी साथियों ने अपने - अपने अनुभव बाँटें ! जो सुन और देख परिवार के सदस्य अचंभित थे !बच्चो को  कभी भी स्टीम लोको देखने को नहीं  मिली थी , वे मंच पर लगे फ्लक्स के तस्वीर से संतुष्ट लग रहे थे ! कईयों ने इसके कार्य पद्धति पर कई प्रश्न पूछ डाले !स्टीम लोको में कार्य करना कठिन , किन्तु बहुत ही स्वास्थ्य बर्धक !
परिवार और छोटे - बड़े बच्चो को देख ऐसा लगा  जैसे  - इंजन के पीछे रंग - विरंगे डब्बे ! एक  और अनेक में परिवर्तित ! सभी इस   अनोखी समागम को देख दंग ! हमारे पीछे इतनी बड़ी संख्या ! कल क्या होगा ?अब वह दिन दूर नहीं जब हमें बच्चो के शादी - व्याह के मौके पर शरीक होना होगा ! इस समूह में लड़कियों की संख्या ज्यादा और लड़को की कम थी !इस समारोह के मुख्य अतिथि सीनियर मंडल यांत्रिक इंजिनियर और उनकी टीम थी ! उन्होंने अपने अविभाषण  में सभी की मंगल की कामनाये करते हुए  बधाई दी ! संध्या के समय  सहायक  मंडल यांत्रिक  इंजिनियर के कर कमलो से सभी साथियों को मोमेंटो प्रदान की गयी ! जो हमेशा इस सुनहरे दिन की याद दिलाता रहेगा !  इस तरह से रेलवे के अंतिम और आखिरी   स्टीम लोको के साक्षियों की सिल्वर जुबिली 26 जून 2012 को हर्षौल्लास के साथ संपन्न हुआ !

Wednesday, June 13, 2012

मानवता की पहचान बड़ी मुश्किल है !

वह कभी बेंच पर बैठता , तो कभी उठ जाता  ! बिलकुल बेचैन ! घबराहट में चहलकदमी , आगंतुक सा राह  को निहारते हुए ! समझ में नहीं  आ रहा था की क्या करे ? माथे पर सिकन भरी ! होठ सुखते जारहे थे ! हर आने वाले से यही पूछता की डॉक्टर साहब कब आ रहे है ? कोई उन्हें जल्दी बुलाओ ना ? नर्सो से बार - बार , एक ही सवाल ..डॉक्टर साहब आ रहे है या नहीं ? नर्सो के सकारात्मक उत्तर भी नकारात्मक सा लग रहे थे ! सहसा एक व्यक्ति का आगमन होते दिखा  ! ड्यूटी पर उपस्थित नर्स ने  इशारे से कहा - वो .. डॉक्टर साहब आ रहे है !

वह व्यक्ति आपे से बाहर ! उसे समझ में नहीं आया की वह किससे तर्क करने जा रहा है और बोल बैठा -" आप ऐसे ही लेट  आते है क्या ? आप को जरा भी सेन्स नहीं है ! मेरा बच्चा सर्जरी के लिए कब से आपरेसन  थियेटर में पड़ा हुआ है ! वह खतरे से खेल रहा है  और आप है जो ..थोड़ी भी समझ नहीं है ..." वह व्यक्ति एक साँस में बोले जा रहा था !

डॉक्टर  मुस्कुराया और बोला --" मै  आप का क्षमा प्रार्थी हूँ ! मै  अस्पताल में नहीं था ! मुझे जैसे ही नर्स की कॉल मिली , भागे - दौड़े  आ रहा हूँ !"  - डॉक्टर अभी अपने सर्जरी  लिबास में भी नहीं था ! दिखने से लग रहा था की वह पहनावे की फिक्र किये बिना ही आ गया था !

" चुप रहो ,,आप के बेटे  के साथ  ऐसा होता , तो खामोश बैठते क्या ? आप का बेटा इस हालत में मर जाए तो क्या करते ?" उस  बच्चे का पिता  गुस्साए हुए भाव से पूछ बैठा ! डॉक्टर ने मायूस स्वर में कहा - " मेरा जो धर्म है . करूँगा ! हम सब मिट्टी  के बने है और एक दिन मिट्टी  में मिल जायेंगे ! भगवान पर भरोसा रखे .सब ठीक  हो जायेगा ! जाईये  बेटे के  लिए भगवान से प्रार्थना  करें ! " इतना कह और देर न करते हुए .. डॉक्टर आपरेसन थियेटर के अन्दर चला गया !

करीब एक घंटे से ज्यादा ..सर्जरी की प्रक्रिया चली ! डॉक्टर  थियेटर से  तेजी से बाहर  निकला और तेज कदमो से  आगे जाते हुए बच्चे के पिता की ओर( जो बेंच पर घबडाये हुए बैठा था ) मुखातिब हो कहा - " life saved  भगवान का शुक्र है ! अगर कोई बात हो तो नर्स से पूछ लेना !" और तेज कदमो में आँखों से ओझल हो गया !

" वाह .. कितना गुस्से में है ...एक क्षण रूक कर मेरे बेटे के बारे में नहीं बता सकता  क्या ? "- वह व्यक्ति फुसफुसाया ! तब तक नर्स उसके सामने आ चुकी थी और वह  उसके शव्दों को सुन ली थी ! वह व्यक्ति नर्स की तरफ देखा ! नर्स की आँखों में आंसू की लडिया बहे जा रही थी ! व्यक्ति को कुछ समझ में नहीं आया ! वह घबडाये  सा उसे देखने लगा ! नर्स ने कहा -"  डॉक्टर के  बेटा  का शव ..श्मसान घाट में उनका इंतजार कर रहा है ! कल सड़क दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गयी थी ! जिस समय उन्हें कॉल मिली उस समय वे उसके अंतिम संस्कार में   व्यस्त थे  ! किन्तु संस्कार की प्रक्रिया बिच में ही छोड़ सर्जरी करने के लिए आ गए !"

मानवता की पहचान बड़ी मुश्किल  है !

( सौजन्य - डॉक्टर श्री मुकुंद सिंह / शिर्डी ..जो सत्य घटना पर आधारित है ! अगर कोई सुधि पाठक उनसे बात करना चाहता है , तो मै  उनका मोबाईल संख्या दे सकता हूँ !)

Friday, March 16, 2012

....... माँ का आंचल ......



माँ पलंग  से उतर  ..तुरंत अपने अंक में भर ली  ! मेरी कपकपी दूर हो गयी ! माँ के आंचल से बड़ा सुख , इस दुनिया के किसी  तम्बू में नहीं है ! वह घबडा गयी ! वह घबरायी हुयी - अमला  ( मेरी छोटी बहन ) से बोली --"  जा ..बेटी  जरा मिर्ची  या काली मिर्च लाओ !" बहन  ने माँ के आज्ञा का तुरंत  पालन किया और  तुरंत हाजीर  हो गयी और माँ के हथेली पर रख दी ! माँ  मेरे तरफ मुखातिब हो बोली - " लो बेटा इसे खाओ !" मैंने न में सिर हिलाई , आनाकानी की  किन्तु माँ नहीं  मानी ! जबरन मुझे काली मिर्च खानी ही पड़ी ! तब तक छोटी दादी , चाची और कई लोग आँगन के प्रांगन  में हाजिर हो गए थे ! मेरे आंख में आंसू आ गए  ! काली  मिर्च काफी तीता लग रहा था ! 

माँ ने पूछा - " कैसा लग रहा है ? "   ....." बहुत तीता !" मैंने अपने हाथो से आँख के पोरों पर लुढ़क रहे आंसू के बूंदों को पोंछते हुए कहा ! फिर माँ बोली -" कुछ नहीं हुआ ! वहां  क्यों गए थे ? उस तरफ नहीं जाना था !" और माँ मेरे आंसुओ को  अपने साड़ी के आँचल से पोछने लगी ! मेरा दिल भी हल्का हो गया ! मैंने देखा , माँ के आँखों में भी आंसू भर आयें थे ! जो मौन मूक थे ! छोटी दादी  और सभी ने कौतुहल वस्  पूछ बैठे - " आखिर ऐसा  क्या  हो गया जी ? जो इतनी घबडाई हो !" 
"  इसी से पूछ लीजिये  ! " - माँ ने कहा और सबकी नजर मेरे तरफ ! 
" मेरे पैर के नजदीक से बड़ा  सांप गुजर गया था ! और क्या ? " मैंने  भी संक्षेप में ...अनमनी - शरारती   अंदाज में उत्तर दे दिया  ! आखिर बचपना जो था ! उस समय सांप या किसी जहरीले जंतु से बड़ा भय लगता था ! सभी के मुख से बस एक ही आवाज - "  वापरे ..वाप !" गोरखनाथ बहुत नसीब वाले हो ! सभी मेरे मुख को देखते रह गए !

जी हाँ  ! बिलकुल सही और सत्य घटना है , जब एक दफा , एक लम्बा सांप  , मेरे पैर के  बहुत करीब से गुजर गया था !
 घटना  कुछ  इस प्रकार है --
 मई के महीने थे  ! स्कुलो में छुट्टिया हो गयी थी ! अतः  पिताजी सपरिवार कोलकाता से गाँव आ गए थे ! उस समय कुछ संभ्रांत परिवारों को छोड़ , किसी के भी घर में शौचालय नहीं हुआ करते थे ! स्त्री हो या पुरुष ..सभी को शौच के लिए गाँव के बाहर जाने पड़ते थे ! फिर भी किसी की ये हिम्मत नहीं होती थी कि किसी के भी बहु -बेटियों को छेड़े ! 

कारण एक संस्कार और सभी की इज्जत कि भावना जिन्दा थी ! सभी रीति और रिश्ते की भैलू समझते थे ! सभी के दिलो में बड़ो के प्रति इज्जत और छोटो के प्रति प्यार भरा था ! जिसकी आज - कल की आधुनिकता की होड़ वाली दुनिया में आभाव  ही आभाव नजर आता है ! जो समाज में ब्याभिचार को जन्म देने के लिए काफी है !


! दोपहर का समय ! मुझे शौच लगा ! मेरी उम्र करीब तेरह वर्ष की  होगी ! मै अकेले खेतो की तरफ निकल पड़ा ! शहर में रहने की वजह से - खुले मैदान में शौच की आदत नहीं थी ! शर्म की वजह से एक गन्ने के खेत में जा बैठा ! कुछ देर बाद मुझे सरसराहट की आवाज सुनाई दी ! गन्ने के पत्ते हिलने लगे , जो जमीन पर पड़ी हुयी थी ! मुझे सियार या भेडिये का शक हुआ ! बैठे - बैठे ही  सिर आस - पास घुमा कर  देखने लगा ! कुछ भी नजर नहीं आया ! अचानक पैर के करीब नजर गयी ! देखा एक बड़ा ( करीब दो मीटर का होगा ) और मोटा सांप रेंगते हुए मेरे सामने से पीछे की ओर जा रहा है ! मेरे खून सुख गए ! जरा भी हिला नहीं ! उसके चले जाने तक स्थिर बैठा रहा ! कुछ क्षण रुक कर भाग खड़ा हुआ ! शरीर कांप रहे थे ! जैसे - तैसे घर आया और सारी घटना , माँ को कह सुनाई ! 


कहते है - जिसे सांप काट लेता है , उसे मिर्च या काली मिर्च की तीतापन महसूस नहीं होता ! यह कहाँ तक सही है , मै भी नहीं समझता ! शायद इसी से अभिभूत हो माँ ने मुझे काली मिर्च खाने को दी थी ! 

इस घटना को सुन सभी दंग रह गए ! माँ से ज्यादा संतान का दुःख किसी को नहीं महसूस होता ! माँ और उसका भय   वाजिब था ! दूसरी माँ मिल सकती है , पर माँ का दूध नहीं मिल सकता ! माँ के ऊपर  अपने सारे प्यार और सभी सुख ... न्योक्षावर कर देने पर भी  ...हम उसके  दूध की कर्ज....   अदा नहीं कर सकते  !    माँ तो माँ होती है !
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